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________________ दर्शन या ज्ञान वही है, जो हमें एकात्मा की अनुभूति कराता है- 'अविभक्तं विभक्तेषु . तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम्'। वैयक्तिक हमारी समाज-निष्ठा का एकमात्र आधार है। सामाजिक दृष्टि सर्वभूत-हिते रताः' गीता का सामाजिक आदर्श भी प्रस्तुत करती है। अनासक्त भाव से युक्त होकर लोक-कल्याण के लिए कार्य करते रहना ही गीता के समाज दर्शन का मूल मन्तव्य है। श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं - 'ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।' (गीता, 12/4) . मात्र इतना ही नहीं, गीता में सामाजिक दायित्वों के निर्वहन पर भी पूरा-पूरा बल दिया गया है। जो अपने सामाजिक दायित्वों को पूर्ण किए बिना भोग करता है, वह गीताकार की दृष्टि में चोर है (स्तेन एव सः, 3/12), साथ ही जो मात्र अपने लिए पकाता है, वह पाप का ही अर्जन करता है (भुंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् 3/13) / गीता हमें समाज में रहकर ही जीवन जीने की शिक्षा देती है, इसलिए उसने संन्यास की नवीन परिभाषा भी प्रस्तुत की है। वह कहती है कि-... 'काम्यानां कर्मणा न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।' (गीता, 18/2) काम्य अर्थात् स्वार्थयुक्त कर्मों का त्याग ही संन्यास है, केवल निरग्नि और निष्क्रिय हो जाना संन्यास नहीं है। सच्चे संन्यासी का लक्षण है- समाज में रहकर लोक. कल्याण के लिए अनासक्त भाव से कर्म करता रहे। अनाश्रितः कर्मफलं कार्य करोति यः। स संन्यासी च योगी च न निरग्नि च चाक्रियः॥ (गीता 6/1) गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि लोक-शिक्षा को चाहते हुए कर्म करता रहे (कुर्यात् विद्वान् तथासक्तः चिकीर्षुः लोकसंग्रहम् 3/25) / गीता में गुणाश्रित कर्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था का जो आदर्श प्रस्तुत किया था, वह भी सामाजिक दृष्टि से कर्तव्यों एवं दायित्वों के विभाजन का एक महत्त्वपूर्ण कार्य था, यद्यपि भारतीय समाज का यह दुर्भाग्य था कि गुण अर्थात् वैयक्तिक योग्यता के आधार पर कर्म एवं वर्ण का यह विभाजन किन्हीं स्वार्थों के कारण जन्मना बना दिया गया। गीता वर्ण-व्यवस्था को तो स्वीकार करती है, किंतु जन्म के आधार पर नहीं, गुण एवं कर्म के आधार पर (चातुर्वर्त्य मयासुष्टं गुण-कर्मविभागशः - गीता, 4/13) गीता में श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि (28)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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