________________ अर्थात्, इस जगत् में जो कुछ भी है, वह सभी ईश्वरीय है, ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे वैयक्तिक कहा जा सके। इस प्रकार श्लोक के पूर्वार्द्ध में वैयक्तिक अधिकार का निरसन करके समष्टि को प्रधानता दी गई है। श्लोक के उत्तरार्द्ध में व्यक्ति के उपभोग एवं संग्रह के अधिकार को मर्यादित करते हुए कहा गया कि प्रकृति की जो भी उपलब्धियां हैं, उनमें दूसरों (अर्थात् समाज के दूसरे सदस्यों) का भी भाग है, अतः उनके भाग को छोड़कर ही उनका उपयोग करो, संग्रह या लालच मत करो, क्योंकि सम्पत्ति किसी एक की नहीं है। सम्भवतः सामाजिकता की चेतना के विकास के लिए इससे अधिक महत्त्वपूर्ण दूसरा कथन नहीं हो सकता था। यही कारण था कि गांधीजी ने इस श्लोक के संदर्भ में कहा था कि यदि भारतीय साहित्य संस्कृति का सभी कुछ नष्ट हो जाए, किंतु यह श्लोक बना रहे, तो यह अकेला ही उसकी अभिव्यक्ति में समर्थ है। तेन त्यक्तेन भुंजीथाः में समग्र सामाजिक चेतना केंद्रित दिखाई देती है। यदि हम उपनिषदों के पश्चात् महाभारत और उसके ही एक अंश गीता की ओर आते हैं, तो यहां भी हमें सामाजिक चेतना का स्पष्ट दर्शन होता है। महाभारत तो इतना व्यापक ग्रंथ है कि उसमें उपस्थित समाज-दर्शन पर एक स्वतंत्र महानिबंध लिखा जा सकता है। सर्वप्रथम महाभारत में और उसके पश्चात् आचार्य शांतिदेव के बोधिचर्यावतार में हमें समाज की आंगिक संकल्पना का वह सिद्धांत परिलक्षित होता है, जिस पर पाश्चात्य चिंतन में सर्वाधिक बल दिया गया है। आचार्य शांतिदेव लिखते 'कायस्यावयत्वेन यथाभीष्टा करादयः। जंगतो ऽवयवत्वेन तथा कस्मान देहिनः॥' . (बोधिचर्यावतार, 8/114) जिस प्रकार हाथ आदि शरीर के अवयव होने के कारण प्रिय होते हैं, वैसे ही सब प्राणी जगत् के अवयव होने के कारण क्यों प्रिय नहीं होंगे? गीता भी इस एकात्मता की अनुभूति पर बल देती है। गीताकार कहता है कि - ‘आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमोमतः॥' (गीता, 6/32) अर्थात्, जो सुख-दुःख की अनुभूति में सभी को अपने समान समझता है, वही सच्चा योगी है। मात्र इतना ही नहीं, वह तो इससे आगे यह भी कहता है कि सच्चा (27)