________________ व्याख्यायित किया जाता है, वह देश, काल और वैयक्तिक रुचि भेद से अप्रभावित हुए बिना नहीं रहता। एक ही गीता को शंकर और रामानुज दो अलग-अलग दृष्टि से व्याख्यायित कर सकते हैं। वही गीता तिलक, अरविंद और राधाकृष्णन् के लिए अलगअलग अर्थ की बोधक हो सकती है। अतः शास्त्र के नाम पर धार्मिक क्षेत्र में विवाद और असहिष्णुता को बढ़ावा देना उचित नहीं है। शास्त्र और शब्द जड़ है, उससे जो अर्थबोध किया जाता है, वही महत्वपूर्ण है और यह अर्थबोध की प्रक्रिया श्रोता या पाठक की दृष्टि पर निर्भर करती है, अतः महत्व दृष्टि का है, शास्त्र के निरे शब्दों का नहीं है। यदि दृष्टि उदार और व्यापक हो, हममें नीर-क्षीर विवेक की क्षमता हो और शास्त्र के वचनों को हम उस परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करें जिसमें वे कह गए हैं, तो हमारे विवाद का क्षेत्र सीमित हो जाएगा। जैनाचार्यों ने नंदीसूत्र में जो यह कहा कि सम्यक् - श्रुत मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्या-श्रुत हो जाता है और मिथ्या-श्रुत भी सम्यक् - दृष्टि के लिए सम्यक् - श्रुत होता है, उसका मूल आशय यही है। धार्मिक असहिष्णुता का बीज-रागात्मकता . धार्मिक असहिष्णुता का बीज तभी वपित होता है, जब हम अपने धर्म या साधना-पद्धति को ही एकमात्र और अंतिम मानने लगते हैं तथा अपने धर्म-गुरु को ही एकमात्र सत्य का द्रष्टा मान लेते हैं। यह अवधारणा ही धार्मिक वैमनस्यता का मूल कारण है। . वस्तुतः जब व्यक्ति की रांगात्मकता धर्मप्रवर्तक, धर्ममार्ग और धर्मशास्त्र के साथ जुड़ती है, तो धार्मिक कदाग्रहों और असहिष्णुता का जन्म होता है। जब हम अपने धर्म-प्रवर्तक को ही सत्य का एकमात्र द्रष्टा और उपदेशक मान लते हैं, तो हमारे मन में दूसरे धर्मप्रवर्तकों के प्रति तिरस्कार की धारणा विकसित होने लगती है। राग का तत्व जहां एक ओर व्यक्ति को किसी से जोड़ता है, वहीं दूसरी ओर वह उसे कहीं से तोड़ने भी लगता है। जैन परम्परा में धर्म के प्रति इस ऐकान्तिक रागात्मकता को दृष्टिराग कहा गया है और इस दृष्टिराग को व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में बाधक भी माना गया है। भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य एवं गणधर इंद्रभूति गौतम को जब तक भगवान् महावीर जीवित रहे, कैवल्य (सर्वज्ञत्व) की प्राप्ति नहीं हो सकी, वे वीतरागता को उपलब्ध नहीं कर पाए। आखिर ऐसा क्यों हुआ? वह कौन सा तत्व था जो गौतम की वीतरागता और सर्वज्ञता की प्राप्ति में बाधक बन रहा था? प्राचीन जैन साहित्य में यह उल्लिखित है कि . एक बार इंद्रभूति गौतम 500 शिष्यों को दीक्षित कर भगवान् महावीर के पास ला रहे थे। (117)