________________ भारतीय संस्कृति में साधना और सेवा का सह-संबंध सामान्यतया साधना व्यक्तिगत और सेवा समाजगत है। दूसरे शब्दों में साधना का संबंध व्यक्ति स्वयं से होता है, अतः वह वैयक्तिक होती है, जबकि सेवा का संबंध दूसरे व्यक्तियों से होता है, अतः उसे समाजगत कहा जाता है। इसी आधार पर कुछ विद्वानों की यह धारणा है कि साधना और सेवा एक-दूसरे से निरपेक्ष हैं। इनके बीच किसी प्रकार का सह-संबंध नहीं है। किंतु मेरी दृष्टि में साधना और सेवा को एक-दूसरे से निरपेक्ष मानना उचित नहीं है, वे एक-दूसरे की पूरक हैं, क्योंकि व्यक्ति अपने आप में केवल व्यक्ति ही नहीं है, वह समाज भी है। व्यक्ति के अभाव में समाज की परिकल्पना जिस प्रकार आधारहीन है, उसी प्रकार समाज के अभाव में व्यक्ति विशेष रूप से मानव व्यक्ति का भी कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि न केवल मनुष्यों में अपितु किसी सीमा तक पशुओं में भी एक सामाजिक व्यवस्था देखी जाती है। वैज्ञानिक अध्ययनों से यह सिद्ध हो चुका है कि चींटी और मधुमक्खी जैसे क्षुद्र प्राणियों में भी एक सामाजिक व्यवस्था होती है। अतः यह सिद्ध है कि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे से निरपेक्ष नहीं है। यदि व्यक्ति और समाज परस्पर सापेक्ष है और उनके बीच कोई सह-संबंध है तो फि र हमें यह भी मानना होगा कि साधना और सेवा भी परस्पर सापेक्ष है और उनके बीच भी एक सह-संबंध है। जैन दर्शन में व्यक्ति की सामाजिक प्रकृति का चित्रण करते हुए स्पष्ट रूप से यह माना गया है कि पारस्परिक सहयोग प्राणीय प्रकृति है। इस संदर्भ में जैन दार्शनिक उमास्वाति ने तत्वार्थसूत्र में एक सूत्र दिया है- परस्परोपग्रहोजीवानम् (5/20) अर्थात् एक-दूसरे का हितसाधन करना प्राणियों की प्रकृति है। प्राणी जगत् में यह एक. स्वाभाविक नियम है कि वे एक-दूसरे के सहयोग या सह-संबंध के बिना जीवित नहीं रह सकते। दूसरे शब्दों में कहें तो जीवन का कार्य है-दूसरे के जीवित जीने में एक-दूसरे का सहयोगी बनना। जीवन एक-दूसरे के सहयोग से ही चलता है, अतः एक-दूसरे का सहयोग करना प्राणियों का स्वाभाविक धर्म है। कुछ विचारकों का यह सोचना है कि व्यक्ति स्वभावतः स्वार्थी है, वह केवल अपना हित चाहता है, किंतु यह एक भ्रान्त अवधारणा है- यदि व्यक्ति और समाज (81)