________________ प्रक्रिया है, उसका प्रारम्भ आत्मज्ञान से है और उसकी परिनिष्पत्ति आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति अटूट निष्ठा में है। वस्तुतः आज जितनी मात्रा में पदार्थ विज्ञान विकसित हुआ है उतनी ही मात्रा में आत्मज्ञान को विकसित होना चाहिए। विज्ञान की दौड़ में अध्यात्म पीछे रह गया है। पदार्थ को जानने के प्रयत्नों में हम अपने को भुला बैठे हैं। मेरी दृष्टि में आत्मज्ञान कोई अमूर्त, तात्विक आत्मा की खोज नहीं है, बल्कि अपने आपको जानना है। अपने आपको जानने का तात्पर्य अपने में निहित वासनाओं और विकारों को देखना है। आत्मज्ञान का अर्थ होता है - हम वह देखें कि हमारे जीवन में कहां अहंकार छिपा पड़ा है और कहां किसके प्रति घृणा-विद्वेष के तत्व पल रहे हैं। आत्मज्ञान कोर्ह हौव्वा नहीं है, वह तो अपने अंदर झांककर अपनी वृत्तियों और वासनाओं को पढ़ने की कला है। विज्ञान द्वारा प्रदत्त तकनीक के सहारे हम पदार्थों का परिशोधन करना तो सीख गए और परिशोधन से कितनी किसे शक्ति प्राप्त होती है वह भी जान गए, किंतु आत्मा के परिशोधन की जो कला अध्यात्म के नाम से हमारे ऋषि-मुनियों ने दी, आज हम उसे भूल चुके हैं। फिर भी विज्ञान ने आज हमारी सुख-सुविधा प्रदान करने के अतिरिक्त जो सबसे बड़ा उपकार किया है, वह यह कि धर्मवाद के नाम पर जो अंधश्रद्धा और अंधविश्वास पल रहे थे उन्हें तोड़ दिया है। इसका टूटना आवश्यक भी था, क्योंकि परलोक की लोरी सुनाकर मानव समाज को अधिक समय तक भ्रम में रखना सम्भव नहीं था। विज्ञान ने अच्छा ही किया हमारा यह भ्रम तोड़ दिया। किंतु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि भ्रम का टूटना ही पर्याप्त नहीं है। इससे जो रिक्तता पैदा हुई है उसे आध्यात्मिक मूल्यनिष्ठा के द्वारा ही भरना होगा। यह आध्यात्मिक मूल्यनिष्ठा उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठा है, जो जीवन को शांति और आत्मसंतोष प्रदान करते हैं। अध्यात्म और विज्ञान का संघर्ष वस्तुतः भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का संघर्ष है। अध्यात्म की शिक्षा यही है कि भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही अंतिम लक्ष्य नहीं है। दैहिक एवं आत्मिक मूल्यों से परे सामाजिक और मानवता के उच्च मूल्य भी हैं। महावीर की दृष्टि में अध्यात्मवाद का अर्थ है पदार्थ को परम मूल्य न मानकर आत्मा को ही परम मूल्य मानना। भौतिकवादी दृष्टि के अनुसार सुख और दुःख वस्तुगत तथ्य हैं। अतः भौतिकवादी सुखों की लालसा में वह वस्तुओं के पीछे दौड़ता है तथा उनकी उपलब्धि हेतु शोषण और संग्रह जैसी सामाजिक बुराइयों को जन्म देता हैं, जिससे वह स्वयं तो संत्रस्त होता ही है, साथ ही साथ समाज को भी संत्रस्त बना देता (169)