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________________ है। इसके विपरीत अध्यात्मवाद हमें यह सिखाता है कि सुख का केंद्र वस्तु में न होकर आत्मा में है। सुख-दुःख आत्म-केंद्रित है। आत्मा या व्यक्ति ही अपने सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है। वही अपना मित्र और वही अपना शत्रु है। सुप्रतिष्ठित अर्थात् सद्गुणों में स्थित आत्मा मित्र है और दुःप्रतिष्ठित अर्थात् दुर्गुणों में स्थित आत्मा शत्रु है। वस्तुतः आध्यात्मिक आनंद की उपलब्धि पदार्थों में न होकर सद्गुणों में स्थित आत्मा में होती है। अध्यात्मवाद के अनुसार देहादि सभी आत्मेत्तर पदार्थों के प्रति ममत्वबुद्धि का विसर्जन साधना का मूल उत्स है। ममत्व का विसर्जन और ममत्व का सृजन यही जीवन का परम मूल्य है। जैसे ही ममत्व का विसर्जन होगा समत्व का सृजन होगा, और जब समत्व का सृजन होगा तो शोषण और संग्रह की सामाजिक बुराइयां समाप्त होंगी। परिमाणतः व्यक्ति-आत्मिक शांति का अनुभव करेगा। अध्यात्मवादी समाज में विज्ञान तो रहेगा किंतु उसका उपयोग संहार में न होकर सृजन में होगा, मानवता के कल्याण में होगा। ___ अंत में पुनः मैं यही कहना चाहूंगा कि विज्ञान के कारण जो एक संत्रास की स्थिति मानव समाज में दिखाई दे रही है उसका मूलभूत कारण विज्ञान नहीं अपितु व्यक्ति की संकुचित और स्वार्थवादी दृष्टि ही है। विज्ञान तो निरपेक्ष है, वह न अच्छा है और न बुरा। उसका अच्छा या बुरा होना उसके उपयोग पर निर्भर करता है और इस उपयोग का निर्धारण व्यक्ति के अधिकार की वस्तु है। अतः आज विज्ञान को नकारने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है उसे सम्यक्-दिशा में नियोजित करने की और यह सम्यक् - दिशा अन्य कुछ नहीं, यह सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की व्यापक आकांक्षा ही है और इस आकांक्षा की पूर्ति अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय में है। काश मानवता इन दोनों में समन्वय कर सके बल्कि यही कामना है। . संदर्भ : 1. जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। - आचारांगसूत्र, संपा. मधुकर मुनि, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1980, 2/5/5 वही, 1/1/1 आत्मज्ञान और विज्ञान (विनोवा) (170)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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