________________ सन्मार्ग का उपदेश करना चाहिए। यह बात भिन्न है कि उसमें से कौन कितना ग्रहण करता है। जैन धर्म में जन्म के आधार पर किसी को निम्न या उच्च नहीं कहा जा सकता, हां वह इतना अवश्य मानता है कि अनैतिकआचरण करना अथवा क्रूर कर्म द्वारा अपनी आजीविका अर्जन करना योग्य नहीं है, ऐसे व्यक्ति अवश्य हीन कर्मा कहे गए हैं, किंतु वे अपने क्रूर एवं अनैतिक कर्मों का परित्याग करके श्रेष्ठ बन सकते हैं। ज्ञातव्य है कि आज भी जैन धर्म में और जैन श्रमणों में विभिन्न जातियों में व्यक्ति प्रवेश पाते हैं। मात्र यही नहीं, श्रमण जीवन को अंगीकार करने के साथ ही निम्न व्यक्ति भी सभी का उसी प्रकार आदरणीय बन जाता है, जिस प्रकार उच्चकुल या जाति का व्यक्तिा जैनसंघ में उनका स्थान समान होता है। यद्यपि मध्यकाल में हिन्दू परम्परा के प्रभाव से, विशेष रूप से दक्षिण भारत में जातिवाद का प्रभाव जैन समाज पर भी आया और मध्यकाल में मातंग आदि जाति-जुंगित (निम्न जाति) एवं मछुआरे, नट आदि कर्मजुंगित व्यक्तियों का श्रमण संस्था में प्रवेश अयोग्य माना गया जैन आचार्यों ने इसका कोई आगमिक प्रमाण न देकर मात्र लोकोपवाद का प्रमाण दिया, जो स्पष्ट रूप से इस तथ्य का सूचक है कि जैन परम्परा को जातिवाद बृहद् हिन्दू प्रभाव के कारण लोकोपवाद के भय से स्वीकारना पड़ा। इसी के परिणामस्वरूप दक्षिण भारत में विकसित जैन धर्म की दिगम्बर परम्परा में जो शूद्र की दीक्षा एवं मुक्ति के निषेध की अवधारणा आई, वह सब ब्राह्मण परम्परा के प्रभाव के कारण ही था। यद्यपि हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि दक्षिण में जो निम्न जाति के लोग जैनधर्म का पालन करते थे, वे इस सबके बावजूद जैनधर्म से जुड़े रहे और वे आज भी पंचम वर्ण के नाम से जाने जाते हैं। यद्यपि बृहद् हिन्दू समाज के प्रभाव के कारण जैनों ने अपने प्राचीन मानवीय समता के सिद्धांत का जो उल्लंघन किया, उसका परिणाम भी उन्हें भुगतना पड़ा और जैनों की जनसंख्या सीमित हो गई। विगत वर्षों में सद्भाग्य से जैनों में, विशेष रूप से श्वेताम्बर परम्परा में यह समतावादी दृष्टि पुन: विकसित हुई है। कुछ जैन आचार्यों के इस दिशा में प्रयत्न के फ लस्वरूप कुछ ऐसी जातियां, जो निम्न एवं क्रूरकर्मा समझी जाती थीं, न केवल जैन धर्म में दीक्षित हुईं, अपितु उन्होंने अपने हिंसक व्यवसाय को त्यागकर सदाचारी जीवन को अपनाया है। विशेष रूप से खटिक और बलाई जातियां जैन धर्म से जुड़ी हैं। खटिकों (हिन्दू-कसाइयों) के लगभग पांच हजार परिवार समीर मुनिजी की विशेष प्रेरणा से अपने हिंसक व्यवसाय और मदिरा का सेवन आदि व्यसनों का परित्याग करके जैन धर्म (71)