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________________ महावीर ने प्रस्तुत सूत्र में जाति-मद, गोत्र-मद आदि को निरस्त करते हुए यह स्पष्ट कह दिया है कि 'जब आत्मा अनेक बार उच्च-नीच गोत्र का स्पर्श कर चुका है, कर रहा है, तब फिर कौन ऊंचा है? कौन नीचा? ऊंच-नीच की भावना मात्र एक अहंकार है और अहंकार ‘मद' है। मद नीच गोत्र के बंधन का मुख्य कारण है। अतः, इस गोत्रवाद व मानवाद की भावना से मुक्त होकर जो उनमें तटस्थ रहता है, वही समत्वशील है, वही पण्डित है। मथुरा से प्राप्त अभिलेखों का जब हम अध्ययन करते हैं, तो हमें ज्ञात होता है कि न केवल प्राचीन आगमों से, अपितु इन अभिलेखों से भी यही फलित होता है कि जैन धर्म ने सदैव ही सामाजिक समता पर बल दिया है और जैनधर्म में प्रवेश का द्वार सभी जातियों के व्यक्तियों के लिए समान रूप से खुला रहा है। मथुरा के जैन अभिलेख इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं कि जैन मंदिरों के निर्माण और जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा में धनी-निर्धन, ब्राह्मण-शूद्र सभी वर्गों, जातियों एवं वर्गों के लोग समान रूप से भाग लेते थे। मथुरा के अभिलेखों में हम यह पाते हैं कि लोहार, सुनार, गन्धी, केवट, लौहवणिक्, नर्तक और यहां तक कि गणिकाएं भी जिन मंदिरों का निर्माण व जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाती थी। ज्ञातव्य है कि मथुरा के इन अभिलेखों में लगभग 60 प्रतिशत दानदाता उन जातियों से हैं, जिन्हें सामान्यतया निम्न माना जाता है। स्थूलिभद्र की प्रेयसी कोशा वेश्या द्वारा जैनधर्म अंगीकार करने की कथा तो लोकविश्रुत है ही। मथुरा के अभिलेखों में भी गणिका नादा द्वारा देवकुलिका की स्थापना भी इसी तथ्य को सूचित करती है कि एक गणिका भी श्राविका के व्रतों को अंगीकार करके उतनी ही आदरणीय बन जाती थी, जितनी कोई राज-महिषी। आवश्यकचूर्णि और तित्थोगाली प्रकीर्णक में वर्णित कोशा वेश्या का कथानक और मथुरा में नादा नामक गणिका द्वारा स्थापित देवकुलिका, आयगपट्ट आदि इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं। जैन धर्म यह भी मानता है कि कोई दुष्कर्मा व दुराचारी व्यक्ति भी अपने दुष्कर्म का परित्याग करके सदाचारपूर्ण नैतिक-जीवन व व्यवसाय को अपनाकर समाज में प्रतिष्ठित बन सकता है। जैन साधना का राजमार्ग तो उसका है, जो उस पर चलता है, वर्ण, जाति या वर्ग विशेष का उस पर एकाधिकार नहीं है। जैन धर्म साधना का उपदेश तो वर्षा ऋतु के जल के समान है, जो ऊंचे पर्वतों, नीचे खेत-खलिहानों पर सुंदर महल व झोपड़ी पर समान रूप से बरसता है। जिस प्रकार बादल बिना भेद-भाव के सर्वत्र जल की वृष्टि करते हैं, उसी प्रकार मुनि को भी ऊंच-नीच, धनी-निर्धन का विचार किए वगैर सर्वत्र (70)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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