________________ सर्वप्रथम पुराणकार जिनसेन ने किए हैं। उनके पूर्ववर्ती अन्य किसी जैन आचार्य ने इस प्रकार के भेदों को मान्य नहीं किया है, किंतु हिन्दू समाज व्यवस्था से प्रभावित बाद के जैन आचार्यों ने इसे प्रायः मान्य किया। षट्प्राभृत के टीकाकार श्रुतसागर ने भी इस स्पृश्य-अस्पृश्य की चर्चा की है। यद्यपि पुराणकार ने शूद्रों को एकशाटकव्रत अर्थात् क्षुल्लकदीक्षा का अधिकार मान्य किया था, किंतु बाद के दिगम्बर जैन आचार्यों ने उसमें भी कमी कर दी। श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांगसूत्र (3/202) के मूल पाठ में तो केवल रोगी, भयार्त्त और नपुंसक की मुनि दीक्षा का निषेध था, किंतु परवर्ती टीकाकारों ने चाण्डालादि जातिजुंगित और व्याधादि कर्मजुंगित लोगों को दीक्षा देने का निषेध कर दिया, फिर भी यह सब जैन धर्म की मूल परम्परा के तो विरुद्ध ही था। जातीय अहंकार मिथ्या है जैनधर्म में जातीय मद और कुल मद को निंदित माना गया है। भगवान् महावीर के पूर्व-जीवनों की कथा में यह चर्चा आती है कि मारीचि के भव में उन्होंने अपने कुल का अहंकार किया था, फलतः उन्हें निम्न भिक्षुक कुल अर्थात् ब्राह्मणी माता के गर्भ में आना पड़ा है। आचारांग में वे स्वयं कहते हैं कि यह आत्मा अनेक बार उच्च गोत्र को और अनेक बार नीच गोत्र को प्राप्त हो चुका है, इसलिए वस्तुतः न तो कोई हीन/नीच है और न कोई अतिरिक्त/विशेष/उच्च है। साधक इस तथ्य को जानकर उच्च गोत्र की स्पृहा न करे। उक्त तथ्य को जान लेने पर भला कौन गोत्रवादी होगा? कौन * उच्च गोत्र का अहंकार करेगा? और कौन किस गोत्र/जाति विशेष में आसक्त चित्त होगा ? इसलिए, विवेकशील मनुष्य उच्च गोत्र प्राप्त होने पर हर्षित न हों और न नीच गोत्र प्राप्त होने पर कुपित/दुःखी हों। यद्यपि जैनधर्म में उच्च गोत्र एवं निम्न गोत्र की चर्चा उपलब्ध है, किंतु गोत्र का सम्बंध परिवेश के अच्छे या बुरे होने से है। गोत्र का सम्बंध जाति अथवा स्पृश्यता-अस्पृश्यता के साथ जोड़ना भ्रांति है। जैन कर्मसिद्धांत के अनुसार देवगति में उच्च गोत्र का उदय होता है और तिर्यंच मात्र में नीच गोत्र का उदय होता है, किंतु देवयोनि में भी किल्विषिक देव नीच एवं अस्पृश्यवत् होते हैं। इसके विपरीत, अनेक निम्न गोत्र में उत्पन्न पशु, जैसे- गाय, घोड़ा, हाथी बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं, वे अस्पृश्य नहीं माने जाते। अतः, उच्च गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति भी हीन और नीच गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति भी उच्च हो सकता है, अत: गोत्रवाद की धारणा को प्रचलित जातिवाद तथा स्पृश्यास्पृश्य की धारणा के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। भगवान् (69)