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________________ एवं क्षत्रिय स्त्री के संयोग से उत्पन्न, क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री के संयोग से उत्पन्न और वैश्य पुरुष और शूद्र स्त्री के संयोग से उत्पन्न- ऐसे अनुलोम संयोग से उत्पन्न तीन वर्णी आचारांगचूर्णि (ईसा की 7वीं शती) में इसे स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्राणी के संयोग से जो संतान होती है, वह उत्तम क्षत्रिय, शूद्र क्षत्रिय या संकर क्षत्रिय कही जाती है, यह पांचवा वर्ण है। इसी प्रकार, क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न संतान उत्तम वैश्य, शुद्ध वैश्य या संकर वैश्य कही जाती है, यह छठवां वर्ण है . तथा वैश्य पुरुष एवं शूद्र स्त्री के संयोग से उत्पन्न संतान शुद्ध शूद्र या संकर शूद्र कही जाती है, यह सातवां वर्ण है। पुनः, अनुलोम और प्रतिलोम सम्बंधों के आधार पर निम्न नौ अंतर-वर्ण बने। ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से अम्बष्ठ' नामक आठवां वर्ण उत्पन्न हुआ। क्षत्रिय पुरुष और शूद्र स्त्री से 'उग्र' नामक नौवां वर्ण हुआ। ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री से 'निषाद' नामक दसवां वर्ण उत्पन्न हुआ। शूद्र पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अयोग' नामक ग्यारहवां वर्ण उत्पन्न हुआ। क्षत्रिय और ब्राह्मणी से सूत' नामक तेरहवां वर्ण हुआ शूद्र पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से क्षत्रा' (खत्ता) नामक चौदहवां वर्ण उत्पन्न हुआ। वैश्य पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'वैदेह' नामक पंद्रहवां वर्ण उत्पन्न हुआ और शूद्र पुरुष तथा ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'चाण्डाल' नामक सोलहवां वर्ण हुआ। इसके पश्चात् इन सोलह वर्गों में परस्पर अनुलोम एवं प्रतिलोम संयोग से अनेक जातियां अस्तित्व में आईं। . उपर्युक्त विवरण में हम यह देखते हैं कि जैन धर्म के आचार्यों ने भी काल-क्रम में जाति और वर्ण की उत्पत्ति के संदर्भ में हिन्दू परम्परा की व्यवस्थाओं को अपने ढंग से संशोधित कर स्वीकार कर लिया। लगभग सातवीं सदी में दक्षिण भारत में हुए आचार्य जिनसेन ने लोकापवाद के भय से तथा जैन धर्म का अस्तित्व और सामाजिक सम्मान बनाए रखने के लिए हिन्दू वर्ण एवं जातिव्यवस्था को इस प्रकार आत्मसात् कर लिया कि इस सम्बंध में जैनों का जो वैशिष्ट्य था, वह प्रायः समाप्त हो गया जिनसेन ने सर्वप्रथम यह बताया कि आदि ब्रह्मा ऋषभदेव ने षट्कर्मों का उपदेश देने के पश्चात् तीन वर्णों (क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) की सृष्टि की। इसी ग्रंथ में आगे यह भी कहा गया है कि जो क्षत्रिय और वैश्य वर्ण की सेवा करते हैं; वे शूद्र हैं। इनके दो भेद हैं- कारू और अकारू। पुनः, कारू के भी दो भेद हैं- स्पृश्य और अस्पृश्या धोबी, नापित आदि स्पृश्य शूद्र हैं और चाण्डाल आदि जो नगर के बाहर रहते हैं, वे अस्पृश्य शूद्र हैं (आदिपुराण 16/184-186) / शूद्रों के कारु और अकारु तथा स्पृश्य एवं अस्पृश्य- ये भेद (68)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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