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________________ से जुड़े और ये परिवार आज न केवल समृद्ध व सम्पन्न हैं, अपितु जैन समाज में भी बराबरी का स्थान पा चुके हैं। इसी प्रकार बलाइयों (हरिजनों) का भी एक बड़ा तबका मालवा में आचार्य नानालालजी की प्रेरणा से मदिरा सेवन, मांसाहार आदि त्यागकर जैनधर्म से जुड़ा और एक सदाचारपूर्ण जीवन व्यतीत करने को प्रेरित हुआ है, ये इस दिशा में अच्छी उपलब्धि है। कुछ अन्य श्वेताम्बर एवं दिगम्बर जैन आचार्यों एवं मुनियों ने भी बिहार प्रांत में सराक जाति एवं परस्पर क्षत्रियों को जैन धर्म से पुनः जोड़ने के सफल प्रयत्न किए हैं। आज भी अनेक जैनमुनि सामान्यतया निम्न कही जाने वाली जातियों से दीक्षित हैं और जैन संघ में समान रूप से आदरणीय हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि जैनधर्म सदैव ही सामाजिक समता का समर्थक रहा है। वर्णव्यवस्था के संदर्भ में जो चिंतन हुआ, उसके निष्कर्ष निम्न हैं 1. सम्पूर्ण मानव जाति एक ही है, क्योंकि उसमें जातिभेद करने वाला ऐसा कोई भी स्वाभाविक लक्षण नहीं पाया जाता है, जो कि एक जाति के पशु से दूसरे जाति के पशु में अंतर होता है। 2. प्रारम्भ में मनुष्य जाति एक ही थी। वर्ण एवं जातिव्यवस्था स्वाभाविक योग्यता के आधार पर सामाजिक कर्तव्यों के कारण और आजीविका हेतु व्यवसाय को अपनाने के कारण उत्पन्न हुई। जैसे-जैसे आजीविका अर्जन के विविध स्त्रोत विकसित होते गए, वैसे-वैसे मानव समाज में विविध जातियां अस्तित्व में आती गईं, किंतु ये जातियां मौलिक नहीं हैं, मात्र मानव सृजित हैं। 3. जाति और वर्ण का निर्धारण जन्म के आधार पर न होकर व्यक्ति के शुभाशुभ आचरण एवं उसके द्वारा अपनाए गए व्यवसाय द्वारा होता है, अतः वर्ण और जाति व्यवस्था जन्मना नहीं, अपितु कर्मणा है। 4. यदि जाति और वर्णव्यवस्था सामाजिक दायित्व पर स्थित है, तो ऐसी स्थिति में सामाजिक कर्त्तव्य और व्यवसाय के परिवर्तन के आधार पर जाति एवं वर्ण में परिवर्तन सम्भव है। 5. कोई भी व्यक्ति किसी जाति या परिवार में उत्पन्न होने के कारण हीन या श्रेष्ठ नहीं होता, अपितु वह अपने सत्कर्मों के आधार पर श्रेष्ठ होता है। 6. जाति एवं कुल की श्रेष्ठता का अहंकार मिथ्या है। उसके कारण सामाजिक समता एवं शांति भंग होती है। 7. जैनधर्म के द्वार सभी वर्ण और जातियों के लिए समान रूप से खुले रहे हैं। (72)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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