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________________ प्राचीन स्तर के जैन ग्रंथों से यह संकेत मिलता है कि उसमें चारों ही वर्गों और सभी जातियों के व्यक्ति जिन-पूजा करने, श्रावक धर्म एवं मुनिधर्म का पालन करने और साधन के सर्वोच्च लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करने के अधिकारी माने गए थे। सातवींआठवीं सदी में जिनसेन ने सर्वप्रथम शद्र को मुनि दीक्षा और मोक्ष प्राप्ति के अयोग्य माना। श्वेताम्बर आगमों में कहीं शूद्र की दीक्षा का निषेध नहीं है, स्थानांग में मात्र रोगी, भयार्त्त और नपुंसक की दीक्षा का निषेध है, किंतु आगे चलकर उनमें भी जातिजुंगित, जैसे-चाण्डाल आदि और कर्मजंगित, जैसे- कसाई आदि की दीक्षा का निषेध कर दिया गया, किंतु यह बृहत्तर हिन्दू परम्परा का प्रभाव ही था, जो कि जैनधर्म के मूल सिद्धांत के विरुद्ध था, जैनों ने इसे केवल अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाए रखने हेतुं मान्य किया, क्योंकि आगमों में हरकेशीबल, मैतार्य, मातंगमुनि आदि अनेक चाण्डालों के मुनि होने और मोक्ष प्राप्त करने के उल्लेख हैं। 8. प्राचीन जैनागमों में मुनि के लिए उत्तम, मध्यम और निम्न- तीनों ही कुलों से भिक्षा ग्रहण करने का निर्देश मिलता है। इससे यही फलित होता है कि जैनधर्म में वर्ण या जाति का कोई भी महत्त्व नहीं था। 9. जैनधर्म यह स्वीकार करता है कि मनुष्यों में कुछ स्वभावगत भिन्नताएं सम्भव हैं, जिनके आधार पर उनके सामाजिक दायित्व एवं जीविकार्जन के साधन भिन्न होते हैं, फिर भी वह इस बात का समर्थक है कि सभी मनुष्यों को अपने सामाजिक दायित्वों एवं आजीविका अर्जन के साधनों को चयन करने की पूर्ण स्वतंत्रता और सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में विकास के समान अवसर उपलब्ध होने चाहिए, क्योंकि ये ही सामाजिक समता के मूल आधार हैं। . संदर्भ - 1. ब्राह्मणाऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्यः कृतः। ऊरु तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायत् / / - ऋग्वेद, 10/90/12, सं. दामोदर सातवलेकर, बालसाड, 1988 अभिधानराजेंद्रकोश, खण्ड 4, पृ. 1441 चत्वार एकस्य पितुः सुताश्चेत्तेषां सुतानां खलु जातिरेका / एवं प्रजानां च पितैक एवं पित्रैकभावाद्य न जातिभेदः / / फलान्यथोदुम्बर वृक्षजातेर्यथाग्रमध्यान्त भवानि यानि / (73) 3.
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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