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________________ जीवन की कल्पना की गई है, उसका अर्थ यही है कि जीवन में निराकुलता, शांति और समाधि आए। धर्म का सार यही है, फिर चाहे हम इसे कुछ भी नाम क्यों न दें। श्री सत्यनारायणजी गोयनका कहते हैं - धर्म न हिन्दू बौद्ध है, धर्म न मुस्लिम जैन। धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शांति सुख चैन।। कुदरत का कानून है, सब पर लागू होया विकृत मन व्याकुल रहे, निर्मल सुखिया होया। यही धर्म की परख है, यही धर्म का माप / जन-मन का मंगल करे, दूर करे संताप॥ जिस प्रकार मलेरिया, मलेरिया है, वह न जैन है, न बौद्ध है न हिन्दू और न मुसलमान, उसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ आदि आध्यात्मिक विकृतियां हैं, वे भी हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं हैं, हम ऐसा नहीं कहते हैं कि यह हिन्दू क्रोध है यह जैन या बौद्ध क्रोध है। यदि क्रोध हिन्दू,बौद्ध या जैन नहीं है तो फिर उसका उपशमन भी हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं कहा जा सकता है। विकार, विकार है और स्वास्थ्य, स्वास्थ्य है, वे हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं हैं। जिन्हें हम हिन्दू, जैन, बौद्ध या अन्य किसी धर्म के नाम से पुकारते हैं, वह विकारों के उपचार की शैली विशेष है जैसे एलोपैथी, आयुर्वेदिक, यूनानी, होम्योपैथी आदि शारीरिक रोगों के उपचार की पद्धति है। समता धर्म/ममता अधर्म . धर्म क्या है? इस प्रश्न का सबसे संक्षिप्त और सरल उत्तर यही है कि वह सब धर्म है, जिसमें मन की आकुलता समाप्त हो, चाह और चिंता मिटे तथा मन निर्मलता, शांति, समभाव और आनंद से भर जाए। इसीलिए महावीर ने धर्म को समता या समभाव के रूप में परिभाषित किया था। समता ही धर्म है और ममता अधर्म है। वीतराग, अनासक्त और वीततृष्णा होने में जो धार्मिक आदर्श की परिपूर्णता देखी गई, उसका कारण भी यही है कि यह आत्मा की निराकुलता या शांति की अवस्था है। आत्मा की इसी निराकुल दशा को हिन्दू और बौद्ध परम्परा में समाधि तथा जैन परम्परा में सामायिक या समता कहा गया है। हमारे जीवन में धर्म है, या नहीं है इसको जानने की एकमात्र कसौटी यह है कि सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि की अनुकूल एवं प्रतिकूल अवस्थाओं में हमारा मन कितना अनुद्विग्न और शांत बना रहता है। यदि अनुकूल परिस्थितियों में मन में संतोष न हो चाह और चिंता बनी रहे तथा प्रतिकूल (151)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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