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________________ माता-पिता, पुत्र-पुत्री एवं पत्नी का पालन-पोषण कौन करेगा, तो उनके पालनपोषण का उत्तरदायित्व मैं वहन कर लूंगा|28 यद्यपि भगवान् बुद्ध ने भी प्रारम्भ में संन्यास के लिए परिजनों की अनुमति को आवश्यक नहीं माना था, अतः अनेक युवकों ने परिजनों की अनुमति के बिना ही संघ में प्रवेश ले लिया था, किंतु आगे चलकर उन्होंने भी यह नियम बना दिया था कि बिना परिजनों की अनुमति के उपसम्पदा प्रदान नहीं की जाए। मात्र यही नहीं, उन्होंने यह भी घोषित कर दिया कि ऋणी, राजकीय सेवक या सैनिक को भी, जो सामाजिक उत्तरदायित्वों से भागकर भिक्षु बनना चाहते हैं, बिना पूर्व अनुमति के उपसम्पदा प्रदान नहीं की जावे। हिन्दूधर्म भी पितृ-ऋण अर्थात् सामाजिक दायित्व को चुकाए बिना संन्यास की अनुमति नहीं देता है। चाहे संन्यास लेने का प्रश्न हो या गृहस्थ जीवन में ही आत्मसाधना की बात हो, सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूर्ण करना आवश्यक माना गया है। हिन्दू धर्म में आदि शंकराचार्य द्वारा संन्यासी होकर भी माता की सेवा और अंतिम संस्कार करने की कथा भी इसी का प्रतीक है। सामाजिक-धर्म __भारतीय आचार दर्शनों में न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से धर्म की विवेचना की गई है, वरन् धर्म के सामाजिक पहलू पर पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। जैन एवं बौद्ध विचारकों ने संघ या सामाजिक जीवन की प्रमुखता सदैव स्वीकार की है। जैनग्रंथ स्थानांगसूत्र में सामाजिक जीवन के संदर्भ में दस धर्मों का विवेचन उपलब्ध है - (1) ग्रामधर्म, (2) नगरधर्म, (3) राष्ट्रधर्म, (4) पाखण्डधर्म, (5) कुलधर्म, (6) गणधर्म, (7) संघधर्म, (8) सिद्धांतधर्म (श्रुतधर्म), (9) चारित्रधर्म और (10) अस्तिकायधर्म 29 / इनमें से प्रथम सात तो पूरी तरह से सामाजिक जीवन से सम्बंधित हैं। ___ 1. ग्रामधर्म - ग्राम के विकास, व्यवस्था तथा शांति के लिए जिन नियमों को ग्रामवासियों ने मिलकर बनाया है, उनका पालन करना ग्रामधर्म है। ग्रामधर्म का अर्थ हैं- जिस ग्राम में हम निवास करते हैं, उस ग्राम की व्यवस्थाओं, मर्यादाओं एवं नियमों के अनुरूप कार्य करना। ग्राम का अर्थ व्यक्तियों के कुलों का समूह हैं, अतः सामूहिक रूप में एक-दूसरे के सहयोग के आधार पर ग्राम का विकास करना, ग्राम के अंदर पूरी तरह व्यवस्था और शांति बनाए रखना और आपस में वैमनस्य और क्लेश उत्पन्न न हो, उसके लिए प्रयत्नशील रहना ही ग्रामधर्म के प्रमुख तत्त्व हैं। ग्राम में शांति एवं व्यवस्था नहीं है, तो वहां के लोगों के जीवन में भी शांति नहीं रहती। जिस परिवेश में हम जीते हैं, (53)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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