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________________ युवतियों द्वारा अपनी इच्छा से चुने गए विवाह सम्बंधों को अर्थात् दोनों को मान्यता प्राप्त थी। जैन परिवार के युवक-युवतियों का जैन परिवार में ही विवाह हो, यह आवश्यक नहीं था। अनेक जैन कथाओं में अन्य धर्मावलम्बी कन्याओं से विवाह करने के उल्लेख मिलते हैं और यह व्यवस्था आज भी प्रचलित है। आज भी जैन परिवार अपनी समान जाति के हिन्दू परिवार की कन्या के साथ विवाह सम्बंध करते हैं। इसी प्रकार अपनी कन्या को हिन्दू परिवारों में प्रदान भी करते हैं। सामान्यतया विवाहित होने पर पत्नी पति के धर्म का अनुगमन करती है, किंतु प्राचीन काल से आज तक ऐसे भी सैकड़ों उदाहरण जैन साहित्य में और सामाजिक जीवन में मिलते हैं, जहां पति पत्नी के धर्म का अनुगमन करने लगता है या फिर दोनों अपने-अपने धर्म का परिपालन करते हैं और संतान को उनमें से किसी के भी धर्म को चुनने की स्वतंत्रता होती है, फिर भी इस विसंवाद से बचने के लिए सामान्य व्यवहार में इस बात को प्राथमिकता दी जाती है कि जैन परिवार के युवक-युवतियां जैन परिवार में ही विवाह करें। पारिवारिक दायित्य और भारतीय दृष्टिकोण . गृहस्थ का सामाजिक दायित्व अपने वृद्ध माता-पिता, पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि परिजनों की सेवा एवं परिचर्या करना है। श्वेताम्बर साहित्य में उल्लेख है कि महावीर ने माता का अपने प्रति अत्यधिक स्नेह देखकर यह निर्णय ले लिया था कि जब तक उनके माता-पिता जीवित रहेंगे, वे संन्यास नहीं लेंगे। यह माता-पिता के प्रति उनकी भक्तिभावना का ही सूचक है। यद्यपि इस सम्बंध में दिगम्बर परम्परा का दृष्टिकोण भिन्न है। जैनधर्म में संन्यास लेने के पहले पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्ति पाना आवश्यक माना गया है। मुझे जैन आगमों में एक भी उल्लेख ऐसा देखने को नहीं मिला, जहां बिना परिजनों की अनुमति से किसी व्यक्ति ने संन्यास ग्रहण किया हो। जैनधर्म में आज भी यह परम्परा अक्षुण्ण रूप से कायम है। कोई भी व्यक्ति बिना परिजनों एवं समाज (संघ) की अनुमति के संन्यास ग्रहण नहीं कर सकता। माता, पिता, पुत्र, पुत्री, पति या पत्नी की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक होता है। इसके पीछे मूल भावना यही है कि व्यक्ति सामाजिक उत्तरदायित्वों से निवृत्ति पाकर ही संन्यास ग्रहण करे। इस बात की पुष्टि अंतकृद्दशा के निम्न उदाहरण से होती है - जब श्रीकृष्ण को यह ज्ञात हो गया कि द्वारिका का शीघ्र ही विनाश होने वाला है, तो उन्होंने स्पष्ट घोषणा करवा दी कि यदि (52)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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