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________________ उसमें शांति और व्यवस्था के लिए आवश्यक रूप से प्रयत्न करना हमारा कर्तव्य है। प्रत्येक ग्रामवासी सदैव इस बात के लिए जाग्रत रहे कि उसके किसी आचरण से ग्राम के हितों को चोट न पहुंचे। ग्रामस्थविर ग्राम का मुखिया या नेता होता है। ग्रामस्थविर का प्रयत्न रहता है कि ग्राम की व्यवस्था, शांति एवं विकास के लिए ग्रामजनों में पारस्परिक स्नेह और सहयोग बना रहे। 2. नगरधर्म - ग्रामों के मध्य में स्थित एक केन्द्रीय ग्राम को, जो उनका व्यावसायिक केंद्र होता है, नगर कहा जाता है। सामान्यतः ग्रामधर्म और नगरधर्म में विशेष अंतर नहीं है। नगरधर्म के अंतर्गत नगर की व्यवस्था एवं शांति, नागरिक-नियमों का पालन एवं नागरिकों के पारस्परिक हितों का संरक्षण-संवर्द्धन आता है, लेकिन नागरिकों का उत्तरदायित्व केवल नगर हितों तक ही सीमित नहीं है। युगीन संदर्भ में नगरधर्म यह भी है कि नागरिकों के द्वारा ग्रामवासियों का शोषण न हो। नगरजनों का उत्तरदायित्व ग्रामीणजनों की अपेक्षा अधिक है। उन्हें न केवल अपने नगर के विकास एवं व्यवस्था का ध्यान रखना चाहिए, वरन् उन समग्र ग्रामवासियों के हित की भी चिंता करनी चाहिए, जिनके आधार पर नगर की व्यावसायिक तथा आर्थिक स्थितियां निर्भर हैं। नगर में एक योग्य नागरिक के रूप में जीना, नागरिक कर्तव्यों एवं नियमों का पूरी तरह पालन करना ही मनुष्य का नगरधर्म है। . .. जैन-सूत्रों में नगर की व्यवस्था आदि के लिए नगरस्थविर की योजना का उल्लेख है। आधुनिक युग में जो स्थान एवं कार्य नगरपालिका अथवा नगरनिगम के अध्यक्ष के हैं, जैन-परम्परा में वही स्थान एवं कार्य नगरस्थविर के हैं। 3. राष्ट्रधर्म - जैन विचारणा के अनुसार प्रत्येक ग्राम एवं नगर किसी राष्ट्र का अंग होता है और प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक विशिष्ट सांस्कृतिक चेतना होती है, जो ग्रामीणों एवं नागरिकों को एक राष्ट्र के सदस्यों के रूप में आपस में बांधकर रखती है। राष्ट्रधर्म का तात्पर्य है- राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना अथवा जीवन की विशिष्ट प्रणाली को सजीव बनाए रखना। राष्ट्रीय विधि-विधान, नियमों एवं मर्यादाओं का पालन करना ही राष्ट्रधर्म है। आधुनिक संदर्भ में राष्ट्रधर्म का तात्पर्य है- राष्ट्रीय एकता एवं निष्ठा को बनाए रखना तथा राष्ट्र के नागरिकों के हितों का परस्पर घात न करते हुए राष्ट्र के विकास में प्रयत्नशील रहना, राष्ट्रीय शासन के नियमों के विरुद्ध कार्य न करना, राष्ट्रीय विधिविधानों का आदर करते हुए उनका समुचित रूप से पालन करना। उपासक-दशांगसूत्र में राज्य के नियमों के विपरीत आचरण करना दोषपूर्ण माना गया है। जैनागमों में राष्ट्रस्थविर (54)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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