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________________ कल्याण (सर्वोदय) करने वाली है। इससे बढ़कर लोक आदर्श और लोक मंगल की कामना क्या हो सकती है? प्रश्नव्याकरणसूत्र नामक आगम ग्रंथ में कहा गया है- .. भगवान् का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। जैन साधना लोक मंगल की धारणा को लेकर ही आगे बढ़ती है। आगे उसी सूत्र में बताया गया है कि जैन साधना के पांचों महाव्रत सब प्रकार से लोकहित के लिए ही हैं? / अहिंसा की विवेचना करते हुए प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि साधना के प्रथम स्थान पर स्थित यह अहिंसा सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। यह भगवती अहिंसा प्राणियों में भयभीतों के लिए शरण के समान है, पक्षियों के लिए आकाशगमन के समान निर्बाध रूप से हितकारिणी है, प्यासों को पानी के समान, भूखों को भोजन के समान, समुद्र में जहाज के समान, रोगियों के लिए औषधि के समान और अटवी में सहायक के समान है। तीर्थंकर नमस्कार-सूत्र (नमोत्थुणं) में तीर्थंकर के लिए लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, अभय के दाता आदि जिन विशेषणों का उपयोग हुआ है, वे भी जैन दृष्टि की लोक मंगलकारी भावना को स्पष्ट करते हैं। तीर्थंकरों का प्रवचन एवं धर्म प्रवर्तन प्राणियों के अनुग्रह के लिए होता है, न कि पूजा या सत्कार के लिए। यदि ऐसा माना जाए कि जैन साधना केवल आत्महित, आत्मकल्याण की बात कहती है, तो फिर तीर्थंकर के द्वारा तीर्थप्रवर्तन या संघ संचालन का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, क्योंकि कैवल्य की उपलब्धि के बाद उन्हें अपने कल्याण के लिए कुछ करना शेष ही नहीं रहता। अतः, मानना पड़ेगा कि जैन साधना का आदर्श मात्र आत्मकल्याण ही नहीं, वरन् लोक-कल्याण भी है। जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित को सदैव ही महत्त्व दिया है। जैन विचारणा के अनुसार, साधना की सर्वोच्च ऊंचाई पर स्थित सभी जीवन्मुक्त आध्यात्मिक पूर्णता की दृष्टि से यद्यपि समान ही होते हैं, फिर भी जैन विचारकों ने उनकी आत्महितकारिणी और लोकहितकारिणी दृष्टि के तारतम्य को लक्ष्य में रखकर उनमें उच्चावच्च क्रम को स्वीकार किया है। एक सामान्य केवली (जीवन्मुक्त) और तीर्थंकर में आध्यात्मिक पूर्णताएं समान ही होती हैं, फिर भी तीर्थंकर की लोकहित की दृष्टि के कारण ही तीर्थंकर को सामान्य केवली की अपेक्षा उच्च स्थान दिया गया है। जैन धर्म के अनुसार, जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त कर लेने वाले व्यक्तियों के भी लोकहित के आधार पर तीन वर्ग होते हैं -1. तीर्थंकर, 2. गणधर, 3. मुण्डकेवली 1. तीर्थंकर - तीर्थंकर वह है, जो सर्वहित के संकल्प को लेकर साधना मार्ग में आता (92)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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