SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ mon Good) के रूप में समन्वय साधने का प्रयास किया है। मानव प्रकृति में विविधताएं हैं, उसमें स्वार्थ और परार्थ के तत्त्व आवश्यक रूप से उपस्थित हैं। आचारदर्शन का कार्य यह नहीं है कि वह स्वार्थवाद या परार्थवाद में से किसी एक सिद्धांत का समर्थन या विरोध करे, उसका कार्य तो यह है कि 'स्व' और 'पर' के मध्य संघर्षों की सम्भावना का निराकरण किया जा सके। भारतीय आचारदर्शन कहां तक और किस रूप में स्व और पर के मध्य संघर्ष की सम्भावना को समाप्त करते हैं, इस बात की विवेचना के पूर्व हमें स्वार्थवाद और परार्थवाद के अर्थ पर भी विचार कर लेना होगा। स्वार्थवाद आत्मरक्षण' है और परार्थवाद आत्मत्याग' है। मैकेन्जी लिखते हैं - 'जब हम केवल अपने ही व्यक्तिगत साध्य की सिद्धि चाहते हैं, तब इसे स्वार्थवाद कहा जाता है, परार्थवाद है- दूसरे के साध्य की सिद्धि का प्रयास करना / दूसरे शब्दों में, स्वार्थवाद को स्वहितवादी दृष्टिकोण और परार्थवाद को लोकहितवादी दृष्टिकोण भी कह सकते हैं। जैन दर्शन में स्वार्थ और परार्थ की समस्या - यदि स्वार्थ और परार्थ की उपरोक्त परिभाषा स्वीकार की जाए, तो जैन दर्शन को न स्वार्थवादी कहा जा सकता है, न परार्थवादी ही। जैन दर्शन आत्मा के स्वगुणों के रक्षण एवं स्वाध्याय की बात कहता है, इस अर्थ में वह स्वार्थवादी है, लेकिन इसके साथ ही वह कषायात्मा के विसर्जन, वासनात्मक आत्मा के त्याग को भी आवश्यक मानता है और इस अर्थ में वह परार्थवादी भी कहा जा सकता है। यदि हम मैकेन्जी की परिभाषा को स्वीकार करें और यह माने कि व्यक्तिगत साध्य की सिद्धि स्वार्थवाद और दूसरे के साध्य की सिद्धि का प्रयास परार्थवाद है, तो भी जैन दर्शन स्वार्थवादी और परार्थवादी- दोनों ही सिद्ध होता है। वह व्यक्तिगत आत्मा से मोक्ष या सिद्धि का समर्थन करने के कारण स्वार्थवादी तो होगा ही, लेकिन दूसरे की मुक्ति के हेतु प्रयासशील होने के कारण परार्थवादी भी कहा जा सकेगा। यद्यपि आत्मकल्याण, वैयक्तिक बंधन एवं दुःख से निवृत्ति के दृष्टिकोण से तो जैन साधना का प्राण आत्महित ही है, तथापि जिस लोक करुणा एवं लोकहित की अनुपम भावना से अर्हत् प्रवचन का प्रस्फुटन होता है, उसे भी नहीं झुठलाया जा सकता। जैन साधना में लोकहित आचार्य समंतभद्र जिनस्तुति करते हुए कहते हैं - हे भगवान् ! आपकी यह संघ (समाज) व्यवस्था सभी प्राणियों के दुःखों का अंत करने वाली और सबका (91)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy