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________________ विशेष पर निर्भर करती है जिसमें वह कहा गया है। वस्तुतः यदि हमारी दृष्टि उदार और व्यापक है, तो हमें परस्पर विरोधी कथनों की सापेक्षिक, सत्यता को स्वीकार करना चाहिए। परिणामस्वरूप विभिन्न धर्मवादों में पारस्परिक विवाद या संघर्ष का कोई कारण शेष नहीं बचता। जिस प्रकार परस्पर झगड़ने वाले व्यक्ति किसी तटस्थ व्यक्ति के अधीन होकर मित्रता को प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार परस्पर विरोधी विचार और विश्वास अनेकांत की उदार और व्यापक दृष्टि के अधीन होकर पारस्परिक विरोध को भूल जाते हैं।25 उपाध्याय यशोविजय जी लिखते हैं यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव। तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी // तेन स्याद्वादमालंब्य सर्वदर्शनतुल्यताम् / मोक्षोद्देशाविशेषणं यः पश्यति स शास्त्रवित् // माध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थों येन तच्चारु सिध्यति। स एव धर्मवादः स्यादन्यद्वालिशवल्गनम् // माध्यस्थ्यसहितं होकपदज्ञानमपि प्रमा। ... शास्त्रकोटितथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना / अर्थात् सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता है। वह सम्पूर्ण दृष्टिकोणों (दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है, जिस प्रकार कोई पिता अपने पुत्र को। एक सच्चे अनेकांतवादी की दृष्टि न्यूनाधिक नहीं होती है। वह सभी के प्रति समभाव रखता है अर्थात् प्रत्येक विचारधारा या धर्म-सिद्धांत की सत्यता का विशेष परिप्रेक्ष्य में दर्शन करता है। आगे वे पुनः कहते हैं कि सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी वही है जो स्याद्वाद अर्थात् उदार दृष्टिकोण का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण विचारधाराओं को समान भाव से देखता है। वस्तुतः माध्यस्थभाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है और यही सच्चा धर्मवाद है। माध्यस्थभाव अर्थात् उदार दृष्टिकोण के रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ों शास्त्रों का ज्ञान भी वृथा है। जैन धर्म और धार्मिक सहिष्णुता के प्रसंग - जैनाचार्यों का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही उदार और व्यापक रहा है। यही कारण है कि उन्होंने दूसरी विचारधाराओं और विश्वासों के लोगों का सदैव आदर किया है। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण जैन परम्परा का एक प्राचीनतम ग्रंथ है-ऋषिभाषिता ऋषिभाषित के अंतर्गत उन पैंतालीस अर्हत् ऋषियों के उपदेशों का संकलन है, जिनमें (193)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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