________________ का सहारा लेना पड़ता है जो सीमित, सापेक्ष और अपूर्ण है। 'है' और 'नहीं है' की सीमा से घिरी हुई भाषा पूर्ण सत्य का प्रकटन कैसे करेगी। इसीलिए जैन परम्परा में कहा गया है कि कोई भी वचन (जिनवचन भी) नय (दृष्टिकोण विशेष) से रहित नहीं होता है अर्थात् सर्वज्ञ के कथन भी सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं है। जैन परम्परा के अनुसार जब सापेक्ष सत्य को निरपेक्ष रूप से दूसरे सत्यों का निषेधक मान लिया जाता है तो वह असत्य बन जाता है और इसे ही जैनों की परम्परागत शब्दावली में मिथ्यात्व कहा गया है। जिस प्रकार अलग-अलग कोणों से लिए गए चित्र परस्पर भिन्न-भिन्न और विरोधी होकर भी एक साथ यथार्थ के परिचायक होते हैं, उसी प्रकार अलग-अलग संदर्भो में कहे गए भिन्न-भिन्न विचार परस्पर विरोधी होते हुए भी सत्य हो सकते हैं। सत्य केवल उतना नहीं है, जितना हम जानते हैं। अतः हमें अपने विरोधियों के सत्य का निषेध करने का अधिकार भी नहीं है। वस्तुतः सत्य केवल तभी असत्य बनता है, जब हम उस अपेक्षा या दृष्टिकोण को दृष्टि से ओझल कर देते हैं, जिसमें वह कहा गया है। जिस प्रकार चित्र में वस्तु की सही स्थिति को समझने के लिए उस कोण का भी ज्ञान अपेक्षित होता है, उसी प्रकार वाणी में प्रकट सत्य.को समझने के लिए उस दृष्टिकोण का विचार अपेक्षित है जिसमें वह कहा गया है। समग्र कथन संदर्भ सहित होते हैं और उन संदर्भो से अलग हटकर उन्हें नहीं समझा जा सकता है। जो ज्ञान संदर्भ रहित है, वह सापेक्ष है और . जो सापेक्ष है, वह अपनी सत्यता का दावा करते हुए भी दूसरे की सत्य का निषेधक नहीं हो सकता है। सत्य के सम्बंध में यही एक ऐसा दृष्टिकोण है जो विभिन्न धर्म और सम्प्रदायों की सापेक्षिक सत्यता एवं मूल्यवत्ता को स्वीकार कर उनमें परस्पर सौहार्द्र और समन्वय स्थापित कर सकता है। अनेकांत की आधारभूमि पर ही यह मानना सम्भव है कि हमारे और हमारे विरोधी के विश्वास और कथन दो भिन्न-भिन्न परिप्रेक्ष्यों में एक साथ सत्य हो सकते हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर सन्मतितर्क में कहते हैं - णिययवयणिज्जसच्चा सव्वनया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा॥4 अर्थात् सभी नय (अर्थात् सापेक्षिक वक्तव्य) अपने-अपने दृष्टिकोण से सत्य हैं। वे असत्य तभी होते हैं, जब वे अपने से विरोधी दृष्टिकोणों के आधार पर किए गए कथनों का निषेध करते हैं। इसीलिए अनेकांत दृष्टि का समर्थक या शास्त्र का ज्ञाता उन परस्पर विरोधी सापेक्षिक कथनों में ऐसा विभाजन नहीं करता है कि ये सच्चे हैं और ये झूठे हैं। किसी कथन या विश्वास की सत्यता और असत्यता उस संदर्भ अथवा दृष्टिकोण (192)