________________ में दो चित्र समान होंगे जब उनका कोण और वह स्थल, जहां से वह चित्र लिया गया है- एक ही हो। अपूर्णता और भिन्नता दोनों ही बातें इन चित्रों में हैं। यही बात मानवीय ज्ञान के सम्बंध में भी है। मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता और शक्ति सीमित है। वह एक अपूर्ण प्राणी है। अपूर्ण के द्वारा पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से आगे नहीं जा सकते हैं। हमारा ज्ञान, जब तक कि वह ऐन्द्रिकता का अतिक्रमण नहीं कर जाता, सदैव आंशिक और अपूर्ण होता है। इसी आंशिक ज्ञान को जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है, तो विवाद और वैचारिक संघर्षों का जन्म होता है। उपर्युक्त उदाहरण में वृक्ष के.सभी चित्र उसके किसी एक अंश विशेष को ही अभिव्यक्त करते हैं। वृक्ष के इन सभी अपूर्ण एवं भिन्न-भिन्न और दो विरोधी कोणों के लिए जाने के कारण किसी सीमा तक परस्पर विरोधी अनेक चित्रों में हम यह कहने का साहस नहीं कर सकते हैं कि यह चित्र उस वृक्ष का नहीं है अथवा यह चित्र असत्य है। इसी प्रकार हमारे आंशिक दृष्टिकोणों पर आधारित सापेक्ष ज्ञान को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने से विरोधी मन्तव्यों को असत्य कहकर नकार दे। वस्तुतः हमारी ऐन्द्रिक क्षमता, तर्कबुद्धि, शब्दसामर्थ्य और भाषायी अभिव्यक्ति सभी अपूर्ण, सीमित और सापेक्ष है। ये सम्पूर्ण सत्य की एक साथ अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं है। मानव बुद्धि सम्पूर्ण सत्य का नहीं, अपितु उसके एकांश का ग्रहण कर सकती है। तत्व या सत्ता अज्ञेय तो नहीं है, किंतु बिना पूर्णता को प्राप्त हुए उसे पूर्णरूप से जाना भी नहीं जा सकता। आइन्सटीन ने कहा था- हम सापेक्ष सत्य को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई निरपेक्ष द्रष्टा ही जानेगा। जब तक हमारा ज्ञान अपूर्ण, सीमित या सापेक्ष है तब तक हमें दूसरों के ज्ञान और अनुभव को, चाहे वह हमारे ज्ञान का विरोधी क्यों न हो, असत्य कहकर निषेध करने का कोई अधिकारी नहीं है। आंशिक सत्य का ज्ञान दूसरों के द्वारा प्राप्त ज्ञान का निषेधक नहीं हो सकता है। ऐसी स्थिति में यह कहना कि मेरी दृष्टि ही सत्य है, सत्य मेरे ही पास है, दार्शनिक दृष्टि से एक भ्रांत धारणा ही है। यद्यपि जैनों के अनुसार सर्वज्ञ या पूर्ण-पुरुष संपूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, फिर भी उसका ज्ञान और कथन उसी प्रकार निरपेक्ष (अपेक्षा से रहित) नहीं हो सकता है, जिस प्रकार बिना किसी कोण के किसी भी वस्तु का कोई भी चित्र नहीं लिया जा सकता है। पूर्ण सत्य का बोध चाहे सम्भव हो, किंतु उसे न तो निरपेक्ष रूप से जाना जा सकता है और न कहा ही जा सकता है। उसकी अभिव्यक्ति का जब भी कोई प्रयास किया जाता है, वह आंशिक और सापेक्ष बनकर ही रह जाता है। पूर्ण-पुरुष को भी हमें समझाने के लिए हमारी उसी भाषा (191)