________________ उसके मूल में रही हुई व्यक्ति की भावनाएं होती हैं। बाह्य रूप से किसी युवती की परिचर्या करते हुए एक व्यक्ति अपनी मनोभूमिका के आधार पर धार्मिक हो सकता है, तो दूसरा अधार्मिका वस्तुतः परिचर्या करते समय परिचर्या की अपेक्षा भी ज़ो अधिक महत्वपूर्ण है, वह उस परिचर्या के मूल में निहित प्रयोजन, प्रेरक या मनोभूमिका होती है। एक व्यक्ति निष्काम भावना से किसी की सेवा करता है, तो दूसरा व्यक्ति अपनी वासनाओं अथवा अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए किसी की सेवा करता है। बाहर से दोनों सेवाएं एक हैं, किंतु उनमें एक नैतिक और धार्मिक है, तो दूसरी अनैतिक और अधार्मिक। हम देखते हैं कि अनेकानेक लोग लौकिक एंषणाओं की पूर्ति के लिए प्रभु-भक्ति और सेवा करते हैं किंतु उनकी वह सेवा धर्म का कारण न होकर अधर्म का कारण होती है। अतः साधनागत बाह्य विभिन्नताओं को न तो धार्मिकता का सर्वस्व मानना चाहिए और न उन पर इतना अधिक बल दिया जाना चाहिए, जिससे पारस्परिक विभेद और भिन्नता की खाई और गहरी हो। वस्तुतः जब तक देश और कालगत भिन्नताएं हैं, जब तक व्यक्ति की रुचि या स्वभावगत भिन्नताएं हैं, तब तक साधनागत विभिन्नताएं स्वाभाविक ही हैं। आचार्य हरिभद्र अपने ग्रंथ योगदृष्टिसमुच्चय में कहते हैं - चित्रा तु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः। यस्मादेते महात्मानो भाव्याधि भिषग्वराः // अर्थात् जिस प्रकार एक अच्छा वैद्य रोगी की प्रकृति, ऋतु आदि को ध्यान में रखकर एक ही रोग के लिए दो व्यक्तियों को अलग-अलग औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार धर्ममार्ग के उपदेष्टा ऋषिगण भी भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले व्यक्तियों के लिए अलग-अलग साधना-विधि प्रस्तुत करते हैं। देश, काल और रुचिगत वैचित्र्य धार्मिक साधना पद्धतियों की विभिन्नता का आधार है। वह स्वाभाविक है, अतः उसे अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। धर्मक्षेत्र में साधनागत विविधताएं सदैव रही हैं और रहेंगी, किंतु उन्हें विवाद का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए।' हमें प्रत्येक साधना-पद्धति की उपयोगिता और अनुपयोगिता का मूल्यांकन उन परिस्थितियों में करना चाहिए जिसमें उनका जन्म होता है। उदाहरण के रूप में, मूर्तिपूजा का विधान और मूर्तिपूजा का निषेध दो भिन्न देशगत और कालगत परिस्थितियों की देन हैं और उनके पीछे विशिष्ट उद्देश्य रहे हुए हैं। यदि हम उन संदर्भो में उनका मूल्यांकन करते हैं, तो इन दो विरोधी साधनापद्धतियों में भी हमें कोई विरोध नजर नहीं आएगा। सभी धार्मिक साधना-पद्धतियों का एक लक्ष्य होते हुए भी उनमें देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति के कारण साधनागत (178)