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________________ विभिन्नताएं आई हैं। उदाहरण के रूप में, हिन्दू धर्म और इस्लाम दोनों में उपासना के पूर्व एवं पश्चात् शारीरिक शुद्धि का विधान है। फिर भी दोनों की शारीरिक शुद्धि की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न है। मुसलमान अपनी शारीरिक शुद्धि इस प्रकार से करता है कि उसमें जल की अत्यल्प मात्रा का व्यय हो, वह हाथ और मुंह को नीचे से ऊपर की ओर धोता है, क्योंकि इसमें पानी की मात्रा कम खर्च होती है। इसके विपरीत हिन्दू अपने हाथ और मुंह ऊपर से नीचे की ओर धोता है। इसमें जल की मात्रा अधिक खर्च होती है। शारीरिक शुद्धि का लक्ष्य समान होते हुए भी अरब देशों में जल का अभाव होने के कारण एक पद्धति अपनाई गई, तो भारत में जल की बहुलता होने के कारण दूसरी पद्धति अपनाई गई। अतः आचार के इन बाहरी रूपों को लेकर धार्मिकता के क्षेत्र में जो विवाद चलाया जाता है, वह उचित नहीं है। चाहे प्रश्न मूर्तिपजा का हो या अन्य कोई, हम देखते हैं कि उन सभी के मूल में कहीं न कहीं देश, काल और व्यक्ति के रुचिगत वैचित्र्य का आधार होता है। इस्लाम ने चाहे कितना ही बुतपरस्ती का विरोध किया हो किंतु मुहर्रम, कब्र-पूजा आदि के नाम पर प्रकारांतर से उसमें मूर्तिपूजा प्रविष्ट हो ही गई है। इसी प्रकार इस्लाम एवं अन्य परिस्थितियों के प्रभाव से हिन्दू और जैन धर्म में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का विकास हुआ। अतः धार्मिक जीवन की बाह्य आचार एवं रीति-रिवाज सम्बंधी दैशिक, कालिक और वैयक्तिक भिन्नताओं को धर्म का मूलाधार न मानकर, इन भिन्नताओं के प्रति एक उदार और व्यापक दृष्टिकोण रखना आवश्यक है। हमें इन सभी विभिन्नताओं को उनके उद्भव की मूलभूत परिस्थितियों में समझने का प्रयत्न करना चाहिए। शास्त्र की सत्यता का प्रश्न धार्मिकता के क्षेत्र में अनेक बार यह विवाद भी प्रमुख हो जाता है कि हमारा धर्मशास्त्र ही सच्चा धर्मशास्त्र है और दूसरों का धर्मशास्त्र सच्चा और प्रामाणिक नहीं है। इस विषय में प्रथम तो हमें यह जान लेना चाहिए कि धर्मशास्त्र का मूल स्त्रोत तो धर्मप्रवर्तक के उपदेश ही होते हैं और सामान्यतया प्राचीन धर्मों में वे मौखिक ही रहे हैं। जिन्होंने उन्हें लिखित रूप दिया, वे देश और कालगत परिस्थितियों से सर्वथा अप्रभावित रहे, यह कहना बड़ा कठिन है। महावीर के उपदेश उनके परिनिर्वाण ने एक हजार वर्ष बाद लिखे गए- क्या इतनी लम्बी कालावधि में उसमें कुछ घटाव-बढ़ाव नहीं हुआ होगा? न केवल यह प्रश्न जैन शास्त्रों का है अपितु हिन्दू और बौद्ध धर्म के शास्त्रों का भी है। दुर्भाग्य से किसी भी धर्म का धर्मशास्त्र, उसके उपदेष्टा के जीवनकाल में नहीं (179)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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