SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संघर्ष, संहार या शोषण की भावना नहीं होनी चाहिए- यही अहिंसा के सिद्धांत का हार्द है। जैन आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र के पांचवें अध्याय में लिखा है- जीवन परस्पर सहयोग के आधार पर चलता है- (परस्परोपग्रहोजीवानाम्)। जीवन जीने में दूसरों का सहयोग लेना और सहयोग देना यही एक प्राकृतिक व्यवस्था है- (The Law of life is the law of co-operation) सहयोग ही जीवन का नियम है। प्राकृतिक व्यवस्था की दृष्टि से यह नियम सर्वत्र कार्य करते हुए दिाखई देती है- हमें जीवन जीने के लिए। प्राणवायु (आक्सीजन) चाहिए, वह हमें वनस्पतिजगत् से मिलती है। वनस्पतिजगत् को किसी मात्रा में कार्बन डाइ-ऑक्साइड चाहिए, उसका उत्सर्जन प्राणीजगत् ही करता है। प्राणीजगत् के अवशिष्ट मलमूत्र आदि वनस्पतिजगत् का आहार बनते हैं, तो वनस्पतिजगत् के फल, अनाज आदि उत्पादन प्राणीजगत् का आहार बन जाते हैं। इस प्रकार प्रकृति का जीवन-चक्र पारस्परिक सहयोग पर चलता है और संतुलित बना रहता है। दुर्भाग्य से पश्चिम के एक चिंतक डार्विन ने इस सिद्धांत को विकास के सिद्धांत के नाम पर उलट दिया। उसने कहा- 'अस्तित्व के लिए संघर्ष और योग्यतम की विजय'। मनुष्य ने अपने को योग्यतम मानकर अन्य जीव जातियों और प्राकृतिक साधनों का दोहन किया जीवों की अन्य प्रजातियों की हिंसा और प्रकृति के जीवन के लिए अंगीभूत या परमावश्यक हवा और पानी को प्रदूषित करने का मार्ग अपनाया। पारस्परिक अविश्वास और भय के बीज बोकर आज मनुष्य ने अपनी ही चिता तैयार कर ली है। आज जीवन के सभी रूपों के प्रति सम्मान रूप अहिंसा और अभय के सिद्धांत ऐसे हैं, जो मानव अस्तित्व को सुरक्षित रख सकते हैं। आज संसार के सभी प्राणियों को आत्मवत् मानकर जीवन के सभी रूपों को, चाहे वे सुविकसित हों या अविकसित हो सम्मान देने की आवश्यकता है। साथ ही इस दृढ़निष्ठा की आवश्यकता है कि प्राणीय-जीवन के सहयोगी तत्त्वों, भूमि, जल, वायु और वनस्पति को तथा क्षुद्र जीवधारियों को विनष्ट करने या उन्हें प्रदूषित करने का हमें कोई अधिकार नहीं है। यही अहिंसा की प्रासंगिकता है। संक्षेप में तो अहिंसा- एक दूसरे के सहयोग पूर्वक लोकमंगल करते हुए जीवन जीने की एक पद्धति है। अहिंसा केवल 'जीओ और जीने दो' के नारे तक ही सीमित नहीं है, अहिंसा का आदर्श है दूसरों के लिए जीयो, अपने क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठकर दूसरों का हित-साधन करते हुए जीओ। अहिंसा संकीर्णता की भावना से ऊपर उठकर कर्तव्यबुद्धि से लोकहित करते हुए जीने का संदेश देती है। (12)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy