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________________ दूसरों के विचारों या मान्यताओं के प्रति सम्मान का भाव (Respect of other's Idealogy and Faiths) भारतीय जीवन-दृष्टि का दूसरा महत्त्वपूर्ण सूत्र है- दूसरों के विचारों, मान्यताओं एवं सिद्धांतों के प्रति समादर या सम्मान का भाव रखना तथा अपने विरोधी की विचारधाराओं और मान्यताओं में भी अपेक्षा भेद से सत्यता हो सकती है, इसे स्वीकार करना। जैन दर्शन का अनेकांतवाद यह मानता है कि सामान्यतया हमारा ज्ञान सीमित और सापेक्ष है, क्योंकि हमारे ज्ञान के साधन के रूप में हमारी इंद्रियों का ग्रहण-सामर्थ्य सीमित और सापेक्ष है। दूसरे जिस भाषा के माध्यम से हम अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्ति देते हैं, वे भी सीमित और सापेक्ष है। हमारी घ्राणेन्द्रिय का सामर्थ्य तो चींटी से भी बहुत कम है और हमारी भाषा अनुभूत गुड़ के स्वाद को भी अभिव्यक्ति देने में कमजोर पड़ जाती है, अतः सीमित और सापेक्ष ज्ञान वाले व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह दूसरों की अनुभूतियों, मान्यताओं और विश्वासों को पूर्णतया असत्य या मिथ्या कहकर नकार दे। मेरा ज्ञान और मेरे विरोधी विचारधारा वाले व्यक्ति का ज्ञान या विश्वास भी अपेक्षा भेद से सत्य हो सकता है, यही जैन दर्शन के अनेकांतवाद का मुख्य आधार है। ___यही बात अनाग्रही दृष्टि का विकास करती है। वह दूसरों के विचारों, भावनाओं और धार्मिक या दार्शनिक मान्यताओं के प्रति एक सहिष्णु दृष्टि प्रदान करती है, यह वैचारिक अहिंसा है। व्यक्ति यह मानता है कि सत्य का सूरज जिस प्रकार मेरे आंगन को प्रकाशित करता है, वैसे ही वह मेरे विरोधी के आंगन को भी प्रकाशित कर सकता है। एक ही वस्तु के दो विरोधी कोणों से लिए गए चित्र एक-दूसरे से भिन्न हो सकते हैं, किंतु वे दोनों अपने-अपने कोणों से तो सत्य ही हैं। इसे ही स्पष्ट करते हुए जैन ग्रंथ सूत्रकृतांग में भगवान् महावीर ने कहा है कि जो लोग अपने मत की प्रशंसा करते हैं और अपने विरोधी के मत की निंदा करते हैं, उससे गर्दा करते हैं, वे वस्तुतः सत्य को विद्रूपित करते हैं, वे कभी भी जन्म-मरण के इस चक्र से मुक्त नहीं हो सकते हैं। सत्य सर्वत्र प्रकाशित है, जो भी आग्रह या दुराग्रह के घेरे से अन्मुक्त होकर उसे देख पाता है, वही उसे पा सकता है। दुराग्रह या राग-द्वेष के रंगीन चश्मे पहन कर हम सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकते हैं। सत्य का साक्षात्कार करने के लिए उन्मुक्त दृष्टि का विकास आवश्यक है, सत्य मेरे या पराए के घेरे में आबद्ध नहीं है। जैन आचार्य हरिभद्र ने कहा था मुझे न तो महावीर के वचनों के प्रति आग्रह है और कपिल आदि के प्रति द्वेष (13)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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