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________________ हिंसा का प्रतिपक्ष अहिंसा है। यह अहिंसा की निषेधात्मक परिभाषा है, लेकिन हिंसा नहीं करना मात्र अहिंसा नहीं है। निषेधात्मक अहिंसा जीवन के समग्र पक्षों का स्पर्श नहीं करती है। साथ ही हिंसा या अहिंसा का सम्बंध मात्र दूसरों से नहीं है। जैन चिन्तकों का कहना है कि हिंसा स्वयं की भी होती है और दूसरों की भी होती है। मात्र यही नहीं व्यक्ति पहले स्वयं की हिंसा करता है, फिर वह दूसरों की हिंसा करता है। आत्महिंसा के बिना 'पर' की हिंसा सम्भव ही नहीं है। दूसरों की हिंसा वस्तुतः अपनी हिंसा है और दूसरों के प्रति करुणा या दया अपने प्रति करुणा या दया है। . इसे अधिक स्पष्टता की दृष्टि से समझने के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि दूसरे की हिंसा के पीछे कहीं न कहीं राग-द्वेष या क्रोध, मान, माया एवं लोभ की वृत्ति कार्य करती है- इनसे युक्त होने का अर्थ कहीं न कहीं तनावग्रस्त होना ही है, इनकी उपस्थिति हमारे आत्मिक शांति को भंग कर देती है, शास्त्रीय भाषा में कहें तो व्यक्ति स्वभाव दशा को छोड़कर विभाव दशा (तनावग्रस्त अवस्था) में आ जाता है। अपने शांतिमय निजस्वभाव का यह परित्याग ही तो 'स्व' की हिंसा है। एक अन्य अपेक्षा से जैन दर्शन में हिंसा के दो रूप माने गए हैं- द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा। वैचारिक स्तर पर कषाय से कलुषित भाव या दूसरे के अहित की भावना यह भाव हिंसा है या हिंसा का मानसिक रूप है। भाव हिंसा ही द्रव्य हिंसा या हिंसा की बाह्य घटना का कारण होती है। इसीलिए जैन चिन्तकों ने यह माना कि जहां दुर्भाव है, दूसरे के अहित की भावना है वहां निश्चय ही हिंसा है, चाहे उसके परिणामस्वरूप हिंसा की घटना घटित हो या नहीं भी हो। .. इसलिए भारतीय जीवन-दर्शन यह मानता है कि व्यक्ति को आत्मसजगता पूर्वक दूसरों के कल्याण की भावना से कार्य करना चाहिए। साथ ही यह भी आवश्यक है कि वह दूसरों की मंगल भावना से सक्रिय होकर कर्म करे। भारतीय संस्कृति में अहिंसा केवल निष्क्रियता या निषेधात्मक नहीं है, उसका एक सकारात्मक पक्ष भी है जो सेवा, परोपकार और लोक मंगल की भावना से जुड़ा हुआ है, उसमें नहीं करने के साथ-साथ बचाने का भाव भी जुड़ा हुआ है, उसके पीछे लोकमंगल या परोपकार के उदात्त मूल्य भी जुड़े हैं, जो पारस्परिक हित-साधन की भावना में अपना साकार रूप ग्रहण करते हैं। साथ ही सभी भारतीय दर्शनों का मानना है- जीवन एक-दूसरे के सहयोग के आधार पर चलता है। जीवन जीने में परस्पर सहयोग की भावना होनी चाहिए- परस्पर . (11)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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