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________________ बलिदान दिया जा सकता है, किंतु दूसरी ओर यह भी सही है कि सामूहिक हित भी वैयक्तिक हित से भिन्न नहीं हैं। सबके हित में व्यक्ति का हित तो निहित ही है। व्यक्ति में समाज और समाज में व्यक्ति अनुस्यूत हैं। जैन परम्परा में संघ हित को सर्वोपरिता दी गई है। इस सम्बंध में एक ऐतिहासिक कथा है कि भद्रबाहु ने अपनी वैयक्तिक ध्यान-साधना के लिए संघ के कुछ साधुओं को पूर्व-साहित्य का अध्ययन करवाने की मांग को ठुकरा दिया। इस पर संघ ने उनसे पूछा कि वैयक्तिक साधना और संघहित में क्या प्रधान है? यदि आप संघहित की उपेक्षा करते हैं, तो आपको संघ में रहने का अधिकार भी नहीं है। आपको बहिष्कृत किया जाता है। अंत में भद्रबाहु को संघहित को प्राथमिकता देनी पड़ी। यद्यपि समाज के हित के नाम पर आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों को समाप्त नहीं किया जा सकता। जैन-परम्परा में कहा गया है कि आत्महित करना चाहिए और यदि शक्य हो, तो लोकहित भी करना चाहिए और जहां आत्महित और लोकहित में नैतिक विरोध का प्रश्न हो, वहां आत्महित को ही चुनना पड़ेगा। यद्यपि हमें स्मरण रखना चाहिए कि यहां आत्महित का तात्पर्य वैयक्तिक स्वार्थों की पूर्ति नहीं, अपितु आध्यात्मिक मूल्यों का संरक्षण है। वस्तुतः, वैयक्तिकता और सामाजिकता - दोनों ही मानवीय अस्तित्व के अनिवार्य अंग हैं। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले ने कहा था - मनुष्य मनुष्य नहीं है, यदि वह सामाजिक नहीं और यदि वह मात्र सामाजिक है, तो पशु से अधिक नहीं है। मनुष्य की मनुष्यता वैयक्तिकता और सामाजिकता - दोनों का अतिक्रमण करने में है, किंतु हमें यह स्मरण रखना होगा कि जैनदर्शन अपनी अनेकांतिक दृष्टि के कारण मनुष्य को एक ही साथ वैयक्तिक और सामाजिक-दोनों ही मानता है। बोद्धधर्म में तो लोककल्याण का आदर्श प्रमुख रहा है। महायान की बोधिसत्व की अवधारणा तो लोककल्याण से जुड़ी है। राग जोड़ता भी है और तोड़ता भी है ___ यह ठीक है कि जब मनुष्य में राग का तत्त्व विकसित होता है, तो वह दूसरों से जुड़ता है, लेकिन स्मरण रखना चाहिए कि दूसरों से जुड़ने का अर्थ है- कहीं से कटना, क्योंकि जो किसी से जुड़ता है, तो कहीं से कटता अवश्य है। राग का तत्त्व व्यक्ति के स्व की सीमा का विस्तार तो अवश्य करता है, किंतु वह दूसरों से अलग भी कर देता है। जब हम वैयक्तिक स्वार्थों से युक्त होते हैं, तो हमारा स्व संकुचित होता है और जब हम सामाजिकता से जुड़ते हैं, तो हमारे स्व का क्षेत्र विकसित होता है, किंतु जब तक हम अपने और पराए के भाव का अतिक्रमण नहीं कर पाते हैं, तब तक हमारा 'स्व' या ( 45)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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