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________________ (Instinctive) है, जो अंधप्रेरणा मात्र है, किंतु मनुष्य का जीवन प्रेरणा से चालित न होकर विचार या विवेक से प्रेरित होता है। उसमें आत्मचेतनता है। मनुष्य और पशु में सबसे महत्वपूर्ण अंतर आत्मचेतनता के सम्बंध में है। जहां भी व्यवहार और आचरण मात्र मूल-प्रवृत्ति या अंधप्रेरणा से चालित होता है वहां मनुष्यत्व नहीं, पशुत्व ही प्रधान होता है, ऐसा मानना चाहिए। मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि अपने व्यवहार और आचरण के प्रति उसमें आत्मचेतनता या सजगता हो। यही सजगता उसे पशुत्व से पृथक् करती है। मनुष्य की ही यह विशेषता है कि वह अपने विचारों, अपनी भावनाओं और अपने व्यवहार का द्रष्टा या साक्षी है। उसमें ही यह क्षमता है कि कर्ता और द्रष्टा दोनों की भूमिकाओं में अपने को रख सकता है। वह अभिनेता और दर्शक दोनों ही है। उसका हित इसी में है कि वह अभिनय करके भी अपने दर्शक होने की भूमिका को नहीं भूले। यदि उसमें यह आत्मचेतनता अथवा द्रष्टा-भाव या साक्षी-भाव नहीं रहता है तो हम यह कह सकते हैं कि उसमें मनुष्यता की अपेक्षा पशुता ही अधिक है। मनुष्य में परमात्मा और पशु दोनों ही उपस्थित हैं। वह जितना आत्मचेतन या अपने प्रति सजग बनता है, उसमें उतना ही परमात्मा का प्रकटन होता है और जितना असावधान रहता है, भावना और वासनाओं के अंध प्रवाह में बहता है, उतना ही पशुता के निकट होता है। जो हमें परमात्मा के निकट ले जाता है वही धर्म है और जो पशुता के निकट ले जाता है वही अधर्म है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि एक मनुष्य के रूप में आत्मचेतनता मनुष्य का वास्तविक धर्म है। इसी आत्मचेतनता को ही शास्त्रों में अप्रमाद कहा गया है। मनुष्य जिस सीमा तक आत्मचेतन है, अपने ही विचारों, भावनाओं और व्यवहारों का दर्शक है उसी सीमा तक वह मनुष्य है, धार्मिक है, क्योंकि वह आत्मचेतन होना या आत्मद्रष्टा होना ऐसा आधार है जिससे मानवीय विवेक और सदाचरण का विकास सम्भव है। बीमारी से छुटकारा पाने के लिए पहले उसी बीमारी के रूप में देखना और जानना जरूरी है। यही आत्मचेतनता अथवा साक्षीभाव या द्रष्टा-भाव ही एक ऐसा तत्व है जिस पर धर्म की आधारशिला खड़ी हुई है। जैन आगमों में अप्रमाद को धर्म (अकर्म) और प्रमाद को अधर्म (कर्म) कहा गया है। प्रमाद का सीधा और साफ अर्थ है आत्मचेतनता या आत्मजागृति का अभावा अप्रमत्त वही है जो मनोभावों और प्रवृत्तियों का द्रष्टा है। मनुष्य की मनुष्यता और धार्मिकता इसी बात में है कि वह सदैव अपने आचार और विचार के प्रति सजग रहे। प्रत्येक क्रिया के प्रति हमारी चेतना सजग होनी चाहिए। खाते समय खाने की चेतना और चलते समय (155)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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