________________ चलने की चेतना, क्रोध में क्रोध की चेतना और काम में काम की चेतना बनी रहना आवश्यक है। आप जो भी कर रहे हैं उसके प्रति यदि आप पूरी तरह आत्मचेतन हैं तो ही आप सही अर्थ में धार्मिक हैं। जिसे हम सम्यक् - दर्शन कहते हैं मेरी धारणा में उसका अर्थ यही आत्मदर्शन या आत्मजागृति अथवा द्रष्टा एवं साक्षी-भाव की स्थिति है। आत्मचेतन या अप्रमत्त या आत्मद्रष्टा होने का मतलब है खुद के अंदर झांकना, अपनी वृत्तियों, अपने विचारों एवं अपनी भावनाओं को देखना। सरल शब्दों में कहें तो जो अपने मन के नाटक को देखता है वही आत्मद्रष्टा या आत्मचेतन है। जो अपने कर्मों के प्रति, अपने विचारों के प्रति साक्षी या द्रष्टा नहीं बन सकता वह धार्मिक भी नहीं बन सकता है। भगवान् बुद्ध ने इसी आत्मचेतनता को स्मृति के रूप में पारिभाषित किया है। सम्यक् - स्मृति बौद्ध धर्म के साधनामार्ग का एक महत्वपूर्ण चरण है। भगवान् बुद्ध ने साधकों को बार-बार यह निर्देश दिया है कि अपनी स्मृति को सदैव जागृत बनाए रखो। धम्मपद में वे कहते हैं- अपमादो अमत पदं पमादो मच्चुनो पदं' अर्थात् अप्रमाद ही. अमृत पद है, अमरता का मार्ग है और प्रमाद मृत्यु का। स्मृतिवान होना, सजग, अप्रमत्त होना यह धर्म और धार्मिकता की आवश्यक कसौटी है। आचारांग में भगवान् महावीर ने एक बहुत ही सुंदर बार कही है - ‘सुत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरन्ति' अर्थात् जो सोया हुआ है, सजग या आत्मचेतन नहीं है वह अमुनि है और जो सजग है, जागृत है, आत्मचेतन है वह मुनि है। मनुष्य की यह विशेषता है कि वह अपने प्रति सजग या आत्मचेतन रह सकता है, अपने अंदर झांक सकता है, चेतना में स्थित विषय वासना रूपी गंदगी को देख सकता है। आत्मद्रष्टा या आत्मचेतन होने का मतलब यही है कि हम अपने में निहित या उत्पन्न होने वाली वासनाओं, भावावेशों, विषय-विकारों, रागद्वेष की वृत्तियों एवं क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायों के प्रति सजग रहें, सावधान रहें, उन्हें देखते रहें। समकालीन मानवतावादी विचारकों में वारनरं फिटे ऐसे विचारक हैं, जो यह मानते हैं कि आत्मचेतनता (Selfawareness) ही एक ऐसी स्थिति है जिसे * किसी कर्म की नैतिकता और अनैतिकता की कसौटी माना जा सकता है। यद्यपि यहां कोई यह प्रश्न उठा सकता है कि क्या आत्मचेतना के साथ या पूरी सजगता के साथ किया जाने वाला हिंसादि कर्म धार्मिक या नैतिक होगा? वस्तुतः इस सम्बंध में हमें एक भ्रांति को दूर कर लेना चाहिए। व्यक्ति जितना आत्म-चेतन बनता है, अपने प्रति सजग बनता है, वह भावावेशों से अर उठता जाता है। पूर्ण आत्मचेतना की स्थिति में आवेश या आवेग नहीं रह पाएंगे और आवेश के अभाव में हिंसा सम्भव नहीं है। अतः (156)