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________________ आत्मचेतनता के साथ हिंसा का कर्म सम्भव ही नहीं होगा। अनुभव और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों ही इस बात का समर्थन करते हैं कि दुष्कर्म जितना बड़ा होगा, उसे करते समय व्यक्ति उतने ही भावावेश में होगा। हत्याएं, बलात्कार आदि सभी दुष्कर्म भावावेशों में ही सम्भव होते हैं। वासना का आवेग जितना तीव्र है, आत्मचेतना उतनी ही धूमिल होती है, कुण्ठित होती है और उसी स्थिति में पाप का या बुराइयों का उद्भव होता है। रागाभाव, ममत्व, आसक्ति, तृष्णा आदि को इसीलिए पाप और अधर्म के मूल माने गए हैं, क्योंकि ये आवेगों को उत्पन्न कर हमारी सजगता को कम करते हैं। जब भी व्यक्ति काम में होता है, क्रोध में होता है लोभ में होता है अपने आप को भूल जाता है, उसके आवेग इतने तीव्र बनते जाते हैं कि वह आत्मविस्मृत होता जाता है, अपना आपा खो बैठता है, अतः वे सब बातें जो आत्म-विस्मृति लाती हैं पाप मानी गई हैं, अधर्म मानी गई हैं। वस्तुतः धर्म और अधर्म की एक कसौटी यह है कि जहां आत्मविस्मृति है वहां अधर्म है और जहां आत्म-स्मृति है, आत्म चेतना है, सजगता है, वहां धर्म है। ' दूसरी बात, जिस आधार पर हम मनुष्य और पशु में कोई अंतर कर सकते हैं और जिसे मानव की विशेषता या स्वभाव कहा जा सकता है वह है विवेकशीलता। अक्सर मनुष्य की परिभाषा हम एक बौद्धिक प्राणी के रूप में करते हैं और मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है तो यह विवेक या ज्ञान का तत्व ही एक ऐसा तत्व है जो इसे पशु से पृथक् कर सकता है। कहा भी गया है आहारनिद्राभयमैथुनंच सामान्यमेतद् पशुभिः नाराणाम्।. ज्ञानो ही तेषां अधिको विशेषो, ज्ञानेन हीना नरः पशुभिः समाना / हम से यह पूछा जा सकता है कि यह विवेकशीलता क्या है? वस्तुतः यदि हम सरल भाषा में कहें तो किसी भी क्रिया के करने के पूर्व उसके सम्भावित अच्छे और बुरे परिणामों पर विचार कर लेना ही विवेक है। हम जो कुछ करने जा रहे हैं या कर रहे हैं उसका परिणाम हमारे लिए या समाज के लिए हितकर है या अहितकर इस बात का विचार कर लेना ही विवेक है। यदि आप अपने प्रत्येक आचरण को सम्पादित करने के * पहले उसके परिणामों पर पूरी सावधानी के साथ विचार करते हैं तो आप विवेकशील माने जा सकते हैं। जिसमें अपने हिताहित या दूसरों के हिताहित को समझने की शक्ति है वहीं विवेकशील या धार्मिक हो सकता है। जो व्यक्ति अपने और दूसरों के हिताहितों पर पूर्व में विचार नहीं करता है वह कभी भी धार्मिक नहीं कहला सकता। यह बात बहुत (157)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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