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________________ को समझने लगे। धर्म के क्षेत्र में भी हमारी यही स्थिति है। हम सभी अज्ञान, तृष्णा, आसक्ति, या राग-द्वेष के तत्वों से ऊपर उठना चाहते हैं, किंतु आराध्य के नाम या आराधना विधि को लेकर व्यर्थ से विवाद करते हैं और इस प्रकार परम आध्यात्मिक अनुभूति से वंचित रहते हैं। वस्तुतः यह नामों का विवाद तभी तक रहता है जब तक कि हम उस आध्यात्मिक अनुभूति के रस का रसास्वादन नहीं करते हैं। व्यक्ति जैसे ही वीतराग, वीततृष्णा या अनासक्त की भूमिका का स्पर्श करता है, उसके सामने ये सारे नामों के विवाद निरर्थक हो जाते हैं। सतरहवीं शताब्दी के आध्यात्मिक साधक आनंदघन कहते हैं राम कहो रहिमान कहो कोउ काण्ह कहो महादेव री। . पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा सकल ब्रह्म स्वयमेव री॥ भाजन भेद कहावत नाना एक मृतिका का रूप री। ताते खंड कल्पनारोपित आप अखंड अरूप री // राम-रहीम, कृष्ण-करीम, महादेव और पार्श्वनाथ सभी एक ही सत्य के विभिन्न रूप हैं। जैसे एक ही मिट्टी से बने विभिन्न पात्र अलग-अलग नामों से पुकारे जाते हैं, किंतु उनकी मिट्टी मूलतः एक ही है। वस्तुतः आराध्य के नामों की यह भिन्नता वास्तविक भिन्नता नहीं है। यह भाषागत भिन्नता है, स्वरूपगत भिन्नता नहीं है। अतः इस आधार पर विवाद और संघर्ष निरर्थक है तथा विवाद करने वाले लोगों की अल्पबुद्धि के ही परिचायक हैं। धार्मिक संघर्ष का नियंत्रक तत्व-प्रज्ञा. धर्म के क्षेत्र में अनुदारता और असहिष्णुता के कारणों में एक कारण यह भी है कि हम धार्मिक जीवन में बुद्धि या विवेक के तत्वों को नकार कर श्रद्धा को ही एकमात्र आधार मान लेते हैं। यह ठीक है कि धर्म श्रद्धा पर टिका हुआ है धार्मिक जीवन के आधार हमारे विश्वास और आस्थाएं हैं, लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि यदि हमारे ये विश्वास और आस्थाएं विवेक-बुद्धि को नकार कर चलेंगे तो वे अंधविश्वासों में परिणित हो जाएंगे और ये अंधविश्वास ही धार्मिक संघर्षों के मूल कारण हैं। धार्मिक जीवन में विवेक-बुद्धि या प्रज्ञा को श्रद्धा का प्रहरी बनाया जाना चाहिए, अन्यथा हम अंध-श्रद्धा से कभी भी मुक्त नहीं हो सकेंगे। आज का युग विज्ञान और तर्क का युग है, फिर भी हमारा अधिकांश जनसमाज, जो अशिक्षित है, वह श्रद्धा के बल पर जीता है। हमें यह स्मरण रखना होगा कि श्रद्धा यदि विवेक प्रधान नहीं होती तो.वह सर्वाधिक (124)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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