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________________ अहंकार और अमर्ष से तथा राग-द्वेष के तत्वों से ऊपर उठने पर प्राप्त होती है। अतः हम कह सकते हैं.कि जैनों के अनुसार मुक्ति पर न तो व्यक्ति विशेष का अधिकार है और न तो किसी धर्म विशेष का अधिकार है। मुक्त पुरुष चाहे वह किसी धर्म या सम्प्रदाय का रहा हो सभी के लिए वंदनीय और पूज्य होता है। आचार्य हरिभद्र लोकतत्वनिर्णय में कहते हैं यस्य अनिखिलाश्च न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्म।।" .. अर्थात् जिसके सभी दोष विनष्ट हो चुके हैं और जिसमें सभी गुण विद्यमान हैं, वह फिर ब्रह्मा हो, महादेव हो, विष्णु हो या फिर जिन, हम उसे प्रणाम करते हैं। इसी बात को आचार्य हेमचंद्र महादेवस्तोत्र में लिखते हैं भव-बीजांकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्या ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्म।। 18 अर्थात् संसार-परिभ्रमण के कारणभूत राग-द्वेष के तत्व जिसके क्षीण हो चुके हैं उसे चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, महोदव हो या जिन। . वस्तुतः हम अपने-अपने आराध्य के नामों को लेकर विवाद करते रहते हैं। उसकी विशेषताओं को अपनी दृष्टि से ओझल कर देते हैं। सभी धर्म और दर्शनों में उस परम तत्व या परम सत्ता को राग-द्वेष, तृष्णा और आसक्ति से रहित, विषय-वासनाओं से ऊपर उठी हुई पूर्णप्रज्ञ तथा परम कारुणिक माना गया है। हमारी दृष्टि उस परम तत्व के इस मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी होती है और इसी के आधार पर हम विवाद करते हैं। जबकि यह नामों का भेद अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता है। आचार्य हरिभद्र कहते हैं - सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथातेति च। शब्दैस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एकं एवैवमादिभिः॥" ...' अर्थात् वह एक जी तत्व है चाहे उसे सदाशिव कहें, परब्रह्म कहें, सिद्धात्मा कहें या तथागत कहें। नामों को लेकर जो विवाद किया जाता है उसकी निस्तारता को स्पष्ट करने के लिए एक सुंदर उदाहरण दिया जाता है। एक बार भिन्न भाषा-भाषी लोग किसी नगर की धर्मशाला में एकत्रित हो गए। वे एक ही वस्तु के अलग-अलग नामों को लेकर परस्पर विवाद करने लगे। संयोग से उसी समय उस वस्तु का विक्रेता उसे लेकर वहां आया। सब उसे खरीदने के लिए टूट पड़े और अपने विवाद की निस्सारता (123)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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