________________ देखता है वहीं सच्चे अर्थ में द्रष्टा है और वही साधक है। जब व्यक्ति के जीवन में इस आत्मवत् दृष्टि का विकास होता है तो दूसरों की पीड़ा भी उसे अपनी पीड़ा लगने लगती है। इस प्रकार दुःख कातरता को साधना की उच्चतम स्थिति माना गया है। रामकृष्ण परमहंस जैसे उच्चकोटि के साधकों के लिए यह कहा जाता है कि उन्हें दूसरे की पीड़ा अपनी पीड़ा लगती थी। जो साधक साधना की इस उच्चतम स्थिति में पहुंच जाता है और दूसरों की पीड़ा को भी अपनी पीड़ा समझने लगता है, उसके लिए वैयक्तिक मुक्ति का कोई अर्थ नहीं रह जाता हैं श्रीमद्भागवत् के सप्तम स्कन्ध में प्रहलाद ने स्पष्ट रूप से कहा है कि प्रायेण देवमुनयः स्वविमुक्तिकामाः। . मौन चरनिंतविजने न तु परार्थ निष्ठाः। नेतान् विहाय कृपणां विमुमुक्षुरेकः॥ 'प्रायः कुछ मुनिगण अपनी मुक्ति के लिए वन में अपनी चर्या करते हैं और मौन धारण करते हैं, लेकिन उनमें परार्थनिष्ठा नहीं है। मैं तो दुःखीजनों को छोड़कर अकेला मुक्त होना भी नहीं चाहता हूं। * जो व्यक्ति दूसरे प्राणियों को पीड़ा से कराहता देखकर केवल अपनी मुक्ति की कामना करता है वह निकृष्ट कोटि का है। अरे! और तो क्या स्वयं परमात्मा भी दूसरों की पीड़ाओं को दूर करने के लिए ही संसार में जन्म धारण करते हैं। हिन्दू परम्परा में जो अवतार की अवधारणा है, उसमें अवतार का उद्देश्य यही माना गया है कि वे सत्परुषों के परित्राण के लिए जन्म धारण करते हैं। जब परमात्म भी दूसरों को दुःख और पीड़ाओं में तड़पता देखकर उसकी पीड़ा को दूर करने के लिए अवतरित होते हैं, तो फिर केवल अपनी मुक्ति की कामना करने वाला साधक उच्चकोटि का साधक कैसे हो सकता है ?बौद्ध परम्परा में आचार्य शांतिरक्षित ने बोधिचर्यावतार में कहा है कि दूसरों को दुःख और पीड़ाओं में तड़पते देखकर केवल अपने निवार्ह की कामना करना कहां तक उचित है। अरे! दूसरों के दुःखों को दूर करने में जो सुख मिलता है वह क्या कम है जो केवल स्वयं की विमुक्ति की कामना की जाए। __ बौद्ध परम्परा के महायान् सम्प्रदाय में बोधिसत्व का आदर्श सभी के दुःखों की विमुक्ति होता है। वह अपने वैयक्तिक निर्वाण को भी अस्वीकार कर देता है, जब तक संसार के सभी प्राणियों के दुःख समाप्त होकर उन्हें निर्वाण की प्राप्ति न हो। जैन परम्परा में भी तीर्थंकर को लोककल्याण का आदर्श माना गया है। उसमें कहा गया है (86)