________________ उन्हें समाप्त नहीं करता है, अपितु मात्र रोग के लक्षणों को दबाने का प्रयास करता है। यदि जीवन की मूल दृष्टि भौतिक उपलब्धि और दैहिक वासनाओं की संतुष्टि हो तो स्वार्थ और शोषण का चक्र भी समाप्त नहीं होगा। उसके लिए हमें जीवन के उच्च मूल्यों या आदर्शों को स्वीकार करना होगा। जब तक एक आध्यात्मिक दृष्टि के आधार पर सामाजिकता को विकसित नहीं किया जाता है, तब तक आरोपित सामाजिकता से मानव की स्वार्थ एवं शोषण की वृत्तियों का वास्तविक रूप में निराकरण असम्भव है। दुःख का मूल ममता . भगवान् महावीर ने इस तथ्य को गहराई से समझा था कि भौतिकवाद मानवीय दुःखों की मुक्ति का सम्यक्-मार्ग नहीं है, क्योंकि वह उस कारण का उच्छेद नहीं कर सकता जिससे दुःख-परम्परा की यह धारा प्रस्फुटित होती है। वे उत्तराध्ययन सूत्र में कहते हैं कि कामाणुगिद्धिप्पभवं खुदुक्खं जं काइयं माणसियं च किंचि' अर्थात् समस्त भौतिक एवं मानसिक दुःखों का मूल कारण कामासक्ति है। भौतिकवाद के पास इस कामासक्ति या ममत्वबुद्धि को समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है। न केवल जैन धर्म ने अपितु लगभग सभी धर्मों ने इस बात को एकमत से स्वीकार किया है कि समस्त दुःखों का मूल कारण आसक्ति, तृष्णा या ममत्वबुद्धि है। यदि हम मानव जाति को स्वार्थ, हिंसा, शोषण, भ्रष्टाचार एवं तद्जनित दुःखों से मुक्त करना चाहते हैं तो भौतिकावादी दृष्टि का परित्याग कर उस आध्यात्मिक दृष्टि का विकास करना होगा जिसके अनुसार भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं है। हमें यह मानना होगा कि दैहिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं है। दैहिक एवं आर्थिक मूल्यों से परे अन्य उच्च मूल्य भी हैं। आध्यात्म-दृष्टि अन्य कुछ नहीं, अपितु इन उच्च मूल्यों की स्वीकृति है। जैन-धर्म के अनुसार अध्यात्म का अर्थ है - परार्थ को परम मूल्य न मानकर आत्म को परम मूल्य मानना। पदार्थवादी दृष्टि मानवीय दुःखों और सुखों का आधार ‘वस्तु' या बाह्य परिस्थिति को मानती है, उसके अनुसार सुख-दुःख वस्तुगत लक्ष्य हैं। अतः भौतिकवादी मानव सुख की लालसा में वस्तुओं के पीछे दौड़ता है और उनके संग्रह हेतु स्तेय, शोषण एवं संघर्ष जैसी सामाजिक बुराइयों को जन्म देता है। इसके विपरीत जैन धर्म या अध्यात्म हमें यह सिखाता है कि सुख-दुःख आत्मकृत हैं। बाहर न कोई शत्रु है और न कोई मित्र। आत्मा ही अपना मित्र और शत्रु है। सुप्रस्थित आत्मा मित्र है और दुःप्रस्थित आत्मा शत्रु है। अतः सुख-दुःख की खोज पदार्थों में न कर आत्मा में करना है। जैन आचार्य कहते हैं कि यह ज्ञान-दर्शन स्वरूप (142)