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________________ सम्मिलित उपभोग के लिए जैन भिक्षु को यह कहकर भिक्षा दे कि आप सब मिलकर खा लेना, तो ऐसी स्थिति में जैन भिक्षु का यह दायित्व है कि वह समानरूप से उस भिक्षा को सभी में वितरित करे। वह न तो भिक्षा में प्राप्त अच्छी सामग्री को अपने लिए रखे न भिक्षा का अधिक अंश ही ग्रहण करे।29 / भगवतीसूत्र के अंदर हम यह देखते हैं कि भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अंतेवासी गणधर इंद्रभूति गौतम को मिलने के लिए उनका पूर्वपरिचित मित्र स्कंध, जो कि अन्य परम्परा के परिव्राजक के रूप में दीक्षित हो गया था, आता है तो महावीर स्वयं गौतम को उसके सम्मान और स्वागत का आदेश देते हैं। गौतम आगे बढ़कर अपने मित्र का स्वागत करते हैं और कहते हैं- हे स्कंध! तुम्हारा स्वागत है, सुस्वागत है। अन्य परम्परा के श्रमणों और परिव्राजकों के प्रति इस.प्रकार का सम्मान एवं आदरभाव निश्चित ही धार्मिक सहिष्णुता और पारस्परिक सद्भाव में वृद्धि करता है। ... उत्तराध्ययनसूत्र में हम देखते हैं कि भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के तत्कालीन प्रमुख आचार्य श्रमणकेशी और भगवान् महावीर के प्रधान गणधर इंद्रभूति गौतम जब संयोग से एक ही समय श्रावस्ती में उपस्थित होते हैं तो वे दोनों परम्पराओं के पारस्परिक मतभेदों को दूर करने के लिए परस्पर सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में मिलते हैं। एक ओर ज्येष्ठकुल का विचार कर गौतम स्वयं श्रमणकेशी के पास जाते हैं तो दूसरी ओर श्रमणकेशी उन्हें श्रमणपर्याय में ज्येष्ठ मानकर पूरा समादर प्रदान करते हैं। जिससौहार्द्रपूर्ण वातावरण में वह चर्चा चलती है और पारस्परिक मतभेदों का निराकरण किया जाता है, वह सब धार्मिक सहिष्णुता और उदार दृष्टिकोण का एक अद्भुत उदाहरण है।1 ___ दूसरी धर्म परम्पराओं और सम्प्रदायों के प्रति ऐसा ही उदार और समादर का भाव हमें आचार्य हरिभद्र के ग्रंथों में भी देखने को मिलता है। हरिभद्र संयोग से उस युग में उत्पन्न हुए जब पारस्परिक आलोचना-प्रत्यालोचना अपनी चरम सीमा पर थी। फिर भी हरिभद्र न केवल अपनी समालोचनाओं में संयत रहे अपितु उन्होंने सदैव ही अन्य परम्पराओं के आचार्यों के प्रति आदरभाव प्रस्तुत किया शास्त्रवार्तासमुच्चय उनकी इस उदारवृत्ति और सहिष्णुदृष्टि की परिचायक एक महत्वपूर्ण कृति है। बौद्ध दर्शन की दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा करने के उपरांत वे कहते हैं कि बुद्ध ने जिन क्षणिकवाद, अनात्मवाद और शून्यवाद के सिद्धांतों का उपदेश दिया, वह वस्तुतः ममत्व के विनाश और तृष्णा के उच्छेद के लिए आवश्यक ही था। वे भगवान् बुद्ध को अर्हत्, महामुनि और सुवैद्य की उपमा देते हैं और कहते हैं कि जिस प्रकार एक अच्छा वैद्य रोगी के रोग (195)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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