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________________ अहं के प्रत्यय के विगलन के द्वारा सामाजिक जीवन में परतंत्रता को समाप्त करता है। यदि हम सामाजिक सम्बंधों में उत्पन्न होने वाली विषमता एवं टकराहट के कारणों का विश्लेषण करें, तो उसके मूल में हमारी आसक्ति, रागात्मकता या अहं ही प्रमुख हैं। आसक्ति, ममत्व भाव या राग के कारण ही मनुष्य में संग्रह, आवेश और कपटाचार के तत्त्व जन्म लेते हैं। संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, अप्रामाणिकता, स्वार्थपूर्ण व्यवहार एवं विश्वासघात के तत्त्व विकसित होते हैं। इसी प्रकार आवेश की मनोवृत्ति के कारण क्रूर व्यवहार, संघर्ष, युद्ध एवं हत्याएं होती हैं और कपट की मनोवृत्ति अविश्वास एवं अमैत्रीपूर्ण व्यवहार को जन्म देती है, अतः यह कहना उचित ही होगा कि भारतीय दर्शन ने राग या आसक्ति के प्रहाण पर बल देकर सामाजिक विषमताओं को समाप्त करने एवं सामाजिक समत्व की स्थापना करने में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया है। समाज त्याग एवं समर्पण पर खड़ा होता है, जीता है और विकसित होता है, यह भारतीय चिंतन का महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष है। वस्तुतः आसक्ति या राग तत्त्व की उपस्थिति में सच्चा लोकहित भी फलित नहीं होता है। आसक्ति या कर्म-फल की आकांक्षा के साथ किया गया कोई भी लोक-हित का कार्य स्वार्थपरता से शून्य नहीं होता है। जिस प्रकार शासन की ओर से नियुक्त समाज-कल्याण अधिकारी लोकहित को करते हुए भी सच्चे अर्थों में लोकहित का कर्ता नहीं है, क्योंकि वह जो कुछ भी करता है, वह केवल अपने वेतन के लिए करता है, इसी प्रकार आसक्ति या राग-भावना से युक्त, चाहे बाहर से लोकहित का कर्ता दिखाई दे, किंतु वह सच्चे अर्थ में लोकहित का कर्ता नहीं है। अतः, भारतीय दर्शन ने आसक्ति से या राग से ऊपर उठकर लोकहित करने के लिए एक यथार्थ भूमिका प्रदान की। सराग लोकहित या फलासक्ति से युक्त लोकहित छद्म स्वार्थ ही है, अतः भारतीय दर्शनों में अनासक्ति एवं वीतरागता के प्रत्यय पर जो कुछ बल दिया है, वह सामाजिकता का विरोधी नहीं है। (5) सामान्यतया भारतीय दर्शन के संन्यास के प्रत्यय को समाज निरपेक्ष माना जाता है, किंतु क्या संन्यास की धारणा समाज-निरपेक्ष है? निश्चय ही संन्यासी पारिवारिक जीवन का त्याग करता है, किंतु इससे क्या वह असामाजिक हो सकता है? संन्यास के संकल्प में वह कहता है कि 'वित्तेषणा पत्रेषणा लोकेषणा मया परित्यक्ता, अर्थात् मैं धर्म-कामना, संतान-कामना और यश-कामना का परित्याग करता हूं, किंतु क्या धन-सम्पदा, संतान तथा शाशकीर्ति की कामना का परित्याग समाज का परित्याग है? (34)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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