SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का प्रस्तुतिकरण किया गया और जैन-बौद्ध युग में सामाजिक सम्बंधों के शुद्धिकरण पर बल दिया गया। भारतीय चिंतन की प्रवर्तक वैदिक धारा में सामाजिकता का तत्त्व उसके प्रारम्भिक काल से ही उपस्थित है। वेदों में सामाजिक जीवन की संकल्पना के व्यापक संदर्भ हैं। वैदिक ऋषि सफल एवं सहयोगपूर्ण सामाजिक जीवन के लिए अभ्यर्थना करते हुए कहता है कि 'संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मानसि जानताम् (ऋग्वेद 10/191/2) तुम मिलकर चलो, मिलकर बोलो, तुम्हारे मन साथ-साथ विचार करें अर्थात् तुम्हारे जीवन व्यवहार में सहयोग, तुम्हारी वाणी में समस्वरता और तुम्हारे विचारों में समानता हो। आगे पुनः वह कहता है - समानो मंत्रः समितिः समानी, समानं मनः सहचित्तमेषाम् / समानी व आकृतिः समाना हदयानी वः॥ समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति // (ऋग्वेद 10/191/3-4) आप सबके निर्णय समान हों , आप सबकी सभा भी सबके लिए समान हो, अर्थात् सबके प्रति समान व्यवहार करें। आपका मन भी समान हो और आपकी चित्तवृत्ति भी समान हो, आपके संकल्प एक हों, आपके हृदय एक हों, आपका मन भी एक-रूप हो, ताकि आप मिलजुल कर अच्छी तरह से कार्य कर सकें। सम्भवतः सामाजिक जीवन एवं समाजनिष्ठा के परिप्रेक्ष्य में वैदिक युग के भारतीय चिंतक के ये महत्त्वपूर्ण उद्गार हैं। वैदिक ऋषियों का कृण्वं तो विश्वमार्यम्' के रूप में एक सुसभ्य एवं सुसंस्कृत मानव-समाज की रचना का मिशन तभी सफल हो सकता था, जबकि वे जन-जन में समाज-निष्ठा के बीज का वपन करते। सहयोगपूर्ण जीवन-शैली उनका मूल मंतव्य था। प्रत्येक अवसर पर शांति-पाठ के माध्यम से वे जन-जन में सामाजिक चेतना के विकास का प्रयास करते थे। वे अपने शांति-पाठ में कहते थे - ॐ सहनावतु सहनोभुनक्तु सहवीर्यं करवावहे, तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्वषावहे। (तैत्तिरीय आरण्यक, 8/2) हम सब साथ-साथ रक्षित हों, साथ-साथ पोषित हों, साथ-साथ सामर्थ्य को प्राप्त हों, हमारा अध्ययन तेजस्वी हो, हम आपस में विद्वेष न करें। वैदिक समाज दर्शन का आदर्श था - ‘शत-हस्तः समाहर, सहस्रहस्तःविकर' सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो (25)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy