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________________ भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना भारतीय दार्शनिक चिंतन में उपस्थित सामाजिक संदर्भो को समझने के लिए सर्वप्रथम हमें यह जान लेना चाहिए कि केवल कुछ दार्शनिक प्रस्थान ही सम्पूर्ण भारतीय प्रज्ञा एवं भारतीय चिंतन का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं, इन दार्शनिक प्रस्थानों से हटकर भी भारत में दार्शनिक चिंतन हुआ है और उसमें अनेकानेक संदर्भ उपस्थित हैं। दूसरें यह कि भारतीय दर्शन मात्र बौद्धिक एवं सैद्धांतिक ही नहीं है, वह अनुमूल्यात्मक एवं व्यावहारिक भी है। कोई भी भारतीय दर्शन ऐसा नहीं है, जो मात्र तत्त्वमीमांसीय (Metaphysical) एवं ज्ञान-मीमांसीय (Epistomological) चिंतन से ही संतोष धारण कर लेता हो। उसमें ज्ञान ज्ञान के लिए नहीं, अपितु जीवन के सफल संचालन के लिए है। उसका मूल दुःख की समस्या के निराकरण में है। दुःख-मुक्ति - यही भारतीय दर्शन का 'अथ' और इति' है। यद्यपि तत्त्व-मीमांसा प्रत्येक भारतीय दार्शनिक प्रस्थान के महत्त्वपूर्ण अंग ही हैं, किंतु वे सम्यक् जीवनदृष्टि के निर्माण और सामाजिक व्यवहार की शुद्धि के लिए हैं। भारतीय चिंतन में दर्शन की धर्म और नीति से अवियोज्यता उसके सामाजिक संदर्भ को और भी स्पष्ट कर देती है। यहां दर्शन जानने की नहीं, अपितु जीने की वस्तु रहा है, वह ज्ञान (बौद्धिक ज्ञान) नहीं, अनुभूति है और इसीलिए वह फिलासफी नहीं, दर्शन है, जीवन जीने का एक सम्यक् दृष्टिकोण है। . यद्यपि हमारा दुर्भाग्य तो यह रहा कि मध्य-युग में,दर्शन साधकों और ऋषिमुनियों के हाथों से निकलकर तथाकथित बुद्धिजीवियों के हाथों चला गया, फलतः उसमें तार्किक पक्ष प्रधान तथा अनुभूतिपरक साधना पक्ष एवं आचार-पक्ष गौण हो गया और हमारी जीवन-शैली से उसका रिश्ता धीरे-धीरे टूटता गया। सामाजिक चेतना के विकास की दृष्टि से भारतीय चिंतन को हम तीन भागों में बांट सकते हैं - 1. वैदिक युग, 2. औपनिषदिक युग एवं 3. जैन-बौद्ध युग वैदिक युग में जनमानस में सामाजिक चेतना को जाग्रत करने का प्रयत्न किया गया, जबकि औपनिषदिक युग में सामाजिक चेतना के लिए दार्शनिक आधार (24)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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