________________ से समन्वय साधते हुए अपने अस्तित्व का विस्तार कर लिया है। यहां हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि बौद्धधर्म ने अपना विस्तार सत्ता और शक्ति के बल पर नहीं किया है। बौद्धधर्म की उदार और समन्वयशील दृष्टि का ही यह परिणाम था कि वह जिस देश में गया वहां के आचार-विचार और नीति व्यवहार को, वहां के देवी-देवताओं को इस प्रकार से समन्वित कर लिया कि उन देशों के लिए वह एक बाहरी धर्म न रहकर उनका अपना ही अंग बन गया। इस प्रकार वह विदेश की भूमि में भी विदेशी नहीं रहा। यह उसकी समन्वयवादिता ही थी, जिसके कारण वह विदेशी भूमि में अपने को खड़ा रख सका। बौद्धधर्म में धर्मनिरपेक्षता का आधार-दृष्टिराग का प्रहाण धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्मसमभाव की अवधारणा तभी बलवती होती है जब व्यक्ति अपने को आग्रह और मतान्धता के घेरे से ऊपर उठा सके। आग्रह और मतान्धता से ऊपर उठने के लिए बौद्धधर्म में दृष्टिराग (दिट्ठी परिवासना) का स्पष्टरूप से निषेध किया गया है। बौद्धधर्म और साधना पद्धति की अनिवार्य शर्त यह है कि व्यक्ति अपने को दृष्टिराग से ऊपर उठाए, क्योंकि बौद्ध परम्परा में दृष्टिराग को ही मिथ्यादृष्टि और दृष्टिराग के प्रहाण को सम्यक्दृष्टि कहा गया है। यद्यपि कुछ विचारक यह कह सकते हैं कि बौद्धधर्म या दर्शन स्वयं में भी तो एक दृष्टि है। लेकिन यदि हम बौद्धधर्म का गम्भीरता से अध्ययन करें तो हमें यह बात स्पष्ट हो जाती है कि बुद्ध का संदेश किसी दृष्टि को अपनाना नहीं था, क्योंकि सभी दृष्टियां तृष्णा के ही, राग के ही रूप हैं और सत्य के एकांश का ग्रहण करती हैं। इन दृष्टियों से ऊपर उठना ही बुद्ध की धर्मदेशना का सार है। दृष्टिराग से ऊपर उठना ही दृष्टिनिरपेक्षता है और इसे ही हम धर्मनिरपेक्षता कह सकते हैं। यद्यपि यह एक निषेधात्मक प्रयास ही अधिक है, जैनों के अनेकान्त के समान विधायक प्रयास नहीं है। फिर भी बौद्धधर्म में सम्यक्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की चर्चा हुई है, किंतु उसकी सम्यक्दृष्टि, दृष्टिनिरपेक्षता या दृष्टिशून्यता के अतिरिक्त कुछ नहीं है। बौद्धधर्म की दृष्टि में सभी दृष्टियां ऐकान्तिक होती है। वह यह मानता है कि आग्रह या एकांगीदृष्टि राग के ही रूप है और जो इस प्रकार के दृष्टिराग में रत रहता है वह सम्यक्दृष्टि को उपलब्ध नहीं होता, अपितु जहां एक ओर स्वयं दृष्टिराग के कारण बंधन में पड़ा रहता है, वहीं दूसरी ओर इसी दृष्टिराग के परिणामस्वरूप कलह और विवाद का कारण बनता है। इसके विपरीत जो मनुष्य दृष्टिपक्ष या आग्रह से ऊपर उठ जाता है, वह न तो विवाद में पड़ता है न बंधन में। वह विश्वशांति का साधक होता है। (203)