________________ के लिए है। पांचों महाव्रत सब प्रकार से लोकहित के लिए हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और संग्रह (परिग्रह)- ये सब वैयक्तिक नहीं, सामाजिक जीवन की ही दुष्प्रवृत्तियां हैं। जैन साधना-परम्परा में पंचव्रतों या पंचशीलों के रूप में जिस धर्म-मार्ग का उपदेश दिया गया, वह मात्र वैयक्तिक-साधना के लिए नहीं, अपितु सामाजिक जीवन के लिए था, क्योंकि हिंसा का अर्थ है- किसी अन्य की हिंसा, असत्य का मतलब है- किसी अन्य को गलत जानकारी देना, चोरी का अर्थ है- किसी दूसरे की शक्ति का अपहरण करना, व्यभिचार का मतलब है- सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध यौन सम्बंध स्थापित करना। इसी प्रकार संग्रह या परिग्रह का अर्थ है- समाज में आर्थिक विषमता पैदा करना। क्या सामाजिक जीवन के अभाव में इनका कोई अर्थ रह जाता है? अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह के जो जीवनमूल्य जैन-दर्शन ने प्रस्तुत किए, वे पूर्णतः सामाजिक मूल्य हैं। इसी प्रकार बौद्धधर्म के पंचशील भी मूलतः समाज परक रहे हैं।और उनका उद्देश्य सामाजिक सम्बंधों की शुद्धि है। लोक-मंगल और लोक-कल्याण - यह श्रमण-परम्परा का और विशेष रूप से जैन एवं बौद्ध परम्परा का मूलभूत लक्ष्य रहा है। आचार्य समन्तभद्र ने महावीर के धर्मसंघ को सर्वोदय तीर्थ कहा है, वे लिखते हैं कि सर्वापदाः दामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव', अर्थात् हे प्रभो ! आपका यह धर्मतीर्थ सभी प्राणियों के दुःखों का अंत करने वाला और सभी का कल्याण करने वाला है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध परम्परा ने निवृत्तिमार्ग को प्रधानता देकर भी उसे संघीय साधना के रूप में लोक-कल्याण का आदर्श देकर सामाजिक बनाया है। जैन आगमों में कुलधर्म, ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म और गणधर्म के जो उल्लेख हैं, वे उसकी सामाजिक सापेक्षता को स्पष्ट कर देते हैं। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हमारे पारस्परिक सम्बंध किस प्रकार सुमधुर और समायोजनपूर्ण बन सकें और सामाजिक टकराव के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें किस प्रकार से दूर किया जा सके, यही जैनदर्शन की सामाजिक दृष्टि का मूलभूत आधार है। जैनदर्शन ने आचारशुद्धि पर बल देकर व्यक्ति-सुधार के माध्यम से समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया है। यही दृष्टिकोण बौद्धधर्म का भी रहा है। व्यक्ति और समाज : जैन दृष्टिकोण . सामाजिक दर्शन के विभिन्न सिद्धांतों के संदर्भ में जैनों एवं बौद्धों का दृष्टिकोण समन्वयवादी और उदार रहा है। आगे हम क्रमशः उन सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में जैन एवं बौद्ध दृष्टिकोण पर विचार करेंगे। (43)