________________ घृणा, विद्वेष आदि पराएपन के भाव में ही सम्भव होते हैं, जब सभी स्व या आत्मीय हों, तो घृणा या विद्वेष का अवसर ही कहां रह जाता है। इस प्रकार औपनिषदिक युग में सामाजिक चेतना को एक सुदृढ़ दार्शनिक आधार प्रदान किया गया है, साथ ही सम्पत्ति पर वैयक्तिक अधिकार का निरसन कर सामूहिक-सम्पदा का विचार प्रस्तुत किया गया है। ईशावास्योपनिषद् में सम्पूर्ण सम्पत्ति को ईश्वरीय सम्पदा मानकर उस पर से वैयक्तिक अधिकार को समाप्त कर दिया गया और व्यक्ति को यह कहा गया कि वह जागतिक सम्पदा पर दूसरों के अधिकारों को मान्य करके ही उस सम्पत्ति का उपभोग करे। इस प्रकार 'तेन त्यक्तेन भुजीथा' के रूप में उपभोग के सामाजिक अधिकार की चेतना को विकसित किया गया। इसी तथ्य की पुष्टि श्रीमद्भागवत में भी की गई है, उसमें अपनी दैहिक आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति पर अपना अधिकार मानने वाले को स्पष्टतः चोर कहा गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक और औपनिषदिक युग में सामाजिकता के लिए न केवल प्रेरणा दी गई, अपितु एक दार्शनिक आधार भी प्रस्तुत किया गया है। जैन-धर्म में सामाजिक-चेतना जहां तक जैन और बौद्ध परम्पराओं का प्रश्न है, उनमें सामाजिक-चेतना का आधार एकत्व की अनुभूति न होकर समत्व की अनुभूति रहा है, यद्यपि आचारांग में कहा गया है कि जिसे तू दुःख या पीड़ा देना चाहता है, वह तू ही है। इसमें यह फलित होता है कि आचारांगसूत्र भी एकत्व की अनुभूति पर सामाजिक या अहिंसक चेतना को विकसित करता है, फिर भी जैन और बौद्ध परम्परा में सामाजिक चेतना एवं अहिंसा की अवधारणा के विकास का आधार सभी प्राणियों के प्रति समभाव या समता की भावना रही। उनमें दूसरों की जिजीविषा और सुख-दुःखानुभूति' आत्मवत् सर्वभूतेषु' के आधार पर समझने का प्रयत्न किया गया और सामाजिक सम्बंधों की शुद्धि पर विशेष बल दिया गया। यद्यपि जैन और बौद्धधर्म निवृत्तिप्रधान रहे, किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि वे समाज से विमुख थे। वस्तुतः, भारत में यदि धर्म के क्षेत्र में संघीय साधना-पद्धति का विकास किसी परम्परा ने किया, तो वह श्रमण-परम्परा ही थी। जैनधर्म के अनुसार तो तीर्थंकर अपने प्रथम प्रवचन में ही चतुर्विध संघ की स्थापना करता है। उसके धर्मचक्र का प्रवर्तन संघ-प्रवर्तन से ही प्रारम्भ होता है। यदि महावीर में लोकमंगल या लोककल्याण की भावना नहीं होती, तो वे अपनी वैयक्तिक-साधना की पूर्णता के पश्चात् धर्मचक्र का प्रवर्तन ही क्यों करते? प्रश्नव्याकरणसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तीर्थंकर का यह सुकथित प्रवचन सभी प्राणियों की रक्षा और करुणा (42)