________________ यह सत्य है कि मानव समाज में सदैव ही कुछ शासक या अधिकारी और कुछ शासित या कर्मचारी होंगे, किंतु यह अधिकार भी मान्य नहीं हो सकता कि अधिकारी का अयोग्य पुत्र शासक और कर्मचारी या शासित का योग्य पुत्र शासित ही बना रहे। सामाजिक समता का तात्पर्य यह नहीं है कि मानव समाज में कोई भिन्नता या तरतमता ही नहीं हो। उसका तात्पर्य है- मानव समाज के सभी सदस्यों को विकास के समान अवसर उपलब्ध हों तथा प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता और योग्यता के आधार पर अपना कार्यक्षेत्र निर्धारित कर सके। इस सामाजिक समता के संदर्भ में जहां तक जैन आचार्यों के चिंतन का प्रश्न है, उन्होंने मानव में स्वाभाविक योग्यताजन्य अथवा पूर्व कर्म-संस्कारजन्य तरतमता को स्वीकारते हुए भी यह माना है कि चाहे विद्या का क्षेत्र हो, चाहे व्यवसाय या साधना का, उसमें प्रवेश का द्वार सभी के लिए बिना भेद-भाव के खुला रहना चाहिए। जैन धर्म स्पष्ट रूप से इस बात को मानता है कि किसी जाति या वर्ण-विशेष में जन्म लेने से कोई व्यक्ति श्रेष्ठ या हीन नहीं होता। उसे जो हीन या श्रेष्ठ बनाता है, वह है- उसका अपना पुरुषार्थ, उसकी अपनी साधना, सदाचार और कर्म। हम जैनों के इसी दृष्टिकोण को अग्रिम पृष्ठों में सप्रमाण प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे। जन्मना वर्ण-व्यवस्था : एक असमीचीन अवधारणा भारतीयश्रमण परम्परा श्रुति के इस कथन को स्वीकार नहीं करती है कि ब्राह्मणों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय की बाहु से, वैश्यों की जंघा से और शूद्र की पैरों से हुई है। चूंकि मुख श्रेष्ठ अंग है, अतः इन सब में ब्राह्मण ही श्रेष्ठ है'। ब्रह्मा के शरीर के विभिन्न अंगों से जन्म के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र- ऐसी वर्ण-व्यवस्था श्रमणधारा के चिंतकों को स्वीकार नहीं है। उनका कहना है कि सभी मनुष्य स्त्री-योनि से ही उत्पन्न होते हैं, अतः सभी समान हैं। पुनः, इन अंगों में से किसी को श्रेष्ठ एवं उत्तम और किसी को निकृष्ट या हीन मानकर वर्ण-व्यवस्था में श्रेष्ठता एवं हीनता का विधान नहीं किया जा सकता है, क्योंकि शरीर के सभी अंग समान महत्त्व के हैं। इसी प्रकार शारीरिक वर्णों की भिन्नता के आधार पर किया गया ब्राह्मण आदि जातियों का वर्गीकरण भीश्रमणों को मान्य नहीं है। ___ आचार्य जटासिंह नन्दि ने अपने वरांगचरित में इस बात का विस्तार से विवेचन किया है कि शारीरिक विभिन्नताओं या वर्गों के आधार पर किया जाने वाला जाति सम्बंधी वर्गीकरण मात्र पशु-पक्षी आदि के विषय में ही सत्य हो सकता है, मनुष्यों के संदर्भ में नहीं। वनस्पति एवं पशु-पक्षी आदि में जाति का विचार सम्भव है, किंतु मनुष्य (60)