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________________ भारतीय संस्कृति में सामाजिक-समता (वर्ण एवं जाति व्यवस्था के विशेष संदर्भ में) मानव समाज में स्त्री-पुरुष, सुंदर-असुंदर, बुद्धिमान्-मूर्ख, आर्य-अनार्य, कुलीन-अनकुलीन, स्पर्श्य-अस्पर्श्य, धनी-निर्धन आदि के भेद प्राचीनकाल से ही पाए जाते हैं। इसमें कुछ भेद तो नैसर्गिक हैं और कुछ मानव सृजित। ये मानव सृजित भेद ही सामाजिक विषमता के मूल कारण हैं। यह सत्य है कि सभी मनुष्य, सभी बातों में एक दूसरे से समान नहीं होते, उनमें रूप-सौन्दर्य, धन-सम्पदा, बौद्धिक-विकास, कार्यक्षमता, व्यावसायिक-योग्यता आदि की दृष्टि से विषमता या तरतमता होती है, किंतु इन विषमताओं या तरतमताओं के आधार पर अथवा मानव समाज के किसी व्यक्ति विशेष को वर्ग-विशेष में जन्म लेने के आधार पर निम्न, पतित, दलित या अस्पर्श्य मान लेना उचित नहीं है। यह सत्य है कि मनुष्यों में विविध दृष्टियों से विभिन्नता या तरतमता पाई जाती है और वह सदैव बनी भी रहेगी, किंतु इसे मानव समाज में वर्ग-भेद या वर्ण-भेद का आधार नहीं माना जा सकता, क्योंकि एक ही पिता के दो पुत्रों में ऐसी भिन्नता या तरतमता देखने में आती है। हम यह भी देखते हैं कि जो व्यक्ति गरीब होता है, ... वही कालक्रम में धनवान् या सम्पत्तिशाली हो जाता है। एक मूर्ख पिता का पुत्र भी बुद्धिमान् अथवा प्राज्ञ हो सकता है। एक पिता के दो पुत्रों में एक बुद्धिमान्, तो दूसरा मूर्ख अथवा एक सुंदर, तो दूसरा कुरूप हो सकता है। अतः, इस प्रकार की तरतमताओं के आधार पर मनुष्यों को सदैव के लिए मात्र जन्मना आधार पर विभिन्न वर्गों में बांट कर नहीं रखा जा सकता है। चाहे वह धनोपार्जन हेतु चयनित विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्र हों, चाहे कला, विद्या अथवा साधना के क्षेत्र हों, हम मानव समाज के किसी एक वर्ग विशेष को जन्मना के आधार पर उसका ठेकेदार नहीं मान सकते हैं। यह सत्य है कि नैसर्गिक योग्यताओं एवं कार्यों के आधार पर मानव समाज में सदैव ही वर्गभेद या वर्णभेद बने रहेंगे, फिर भी उनका आधार वर्ग या जाति विशेष में जन्म न होकर व्यक्ति की अपनी स्वाभाविक योग्यता के आधार पर अपनाए गए व्यवसाय या कार्य होंगे। व्यवसाय या कर्म के सभी क्षेत्र सभी व्यक्तियों के लिए समान रूप से खुले होने चाहिए और किसी भी वर्ग विशेष में जन्मे व्यक्ति को भी किसी भी क्षेत्र विशेष में प्रवेश पाने के अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए - यही सामाजिक समता का आधार है। ( 59 )
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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