________________ हैं, यदि हममें और परमात्मा में कोई भेद है तो वह इतना कि हम अभी अविकास की अवस्था में हैं, हम अपने में उपस्थित उस परमात्म सत्ता को पूणतया अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे हैं। जैन दर्शन की सम्पूर्ण साधना का लक्ष्य परमात्म स्वरूप की उपलब्धि ही है। भारतीय वेदांत का तो सूत्रवाक्य है 'सर्वं खलु इदं ब्रह्न'। अयम् आत्मा ब्रह्म। तत्त्वमसि। हममें और परमात्मा में वही अंतर है जो एक बीज और वृक्ष में होता है। बीज में वृक्ष निहित है, किंतु अभिव्यक्त नहीं हुआ है, उसी प्रकार से प्रत्येक व्यक्ति में परमात्म तत्त्व निहित है, किंतु वह अभी पूर्णरूप से अभिव्यक्त नहीं हुए है। बीज ज़ब अपने आवरण को तोड़कर विकास की दिशा में आगे बढ़ता है तो वह वृक्ष का रूप ले लेता है। इसी प्रकार से व्यक्ति भी अपने वासना रूपी आवरणों को तोड़कर परमात्मावस्था को प्राप्त कर सकता है। परमात्मा को पाने का अर्थ अपने में निहित परमात्म तत्त्व की अभिव्यक्ति ही है, परमात्मा कोई बाह्य वस्तु नहीं है, वह तो हमारा ही शुद्ध स्वरूप है, इसलिए जैन दर्शन में परमात्मभक्ति का लक्ष्य है वंदे तद्गुण लब्धये' अर्थात् परमात्म स्वरूप की उपलब्धि ही व्यक्ति की सम्पूर्ण साधना का लक्ष्य है। परमात्म-सत्ता व्यक्ति से भिन्न नहीं है, वह बाहर नहीं है, वह हम ही में निहित है, अतः जैन दर्शन में परमात्म भक्ति का अर्थ कोई याचना या समर्पण नहीं है, अपितु अपनी अस्मिता को पूर्ण अभिव्यक्ति देना है। किसी जैन कवि ने कहा है अज कुलगत केशरी रे लहेरे निजपद सिंह निहाल। तिम प्रभु भक्ति भाव लहे रे निज आतम संभाल // स्वतंत्रता व्यक्ति का स्वतःसिद्ध अधिकार है भारतीय संस्कृति की मान्यता है कि स्वतंत्रता व्यक्ति का स्वतःसिद्ध अधिकार है। हम तत्त्वतः स्वतंत्र हैं, परतंत्रता हमारी ममत्ववृत्ति के कारण हमारे स्वयं के द्वारा आरोपित है। दूसरे शब्दों में स्वतंत्रता हमारा निजस्वभाव है और परतंत्रता हमारा विभाव है, विकृत मनोदशा है। अतः विभाव को छोड़कर स्वभाव में आना ही स्वतंत्रता की या आत्मपूर्णता की उपलब्धि है और भारतीय दर्शनों की अनुसार यही मुक्ति है, आत्मा का परमात्मा बन जाना है। परतंत्रता ‘पर' के कारण नहीं है, वह स्व आरोपित है। 'पर' में ममत्ववृत्ति या मेरेपन का आरोपण कर व्यक्ति स्वयं ही बंधन में आ जाता है। हमारे बंधन का हेतु या कारण हम स्वयं हैं। भारतीय संस्कृति मानती है कि मिथ्या दृष्टिकोण, असंयम, प्रमाद (असहजता), कषाय और मन-वचन-काया की स्वच्छंद प्रवृत्तियों के कारण व्यक्ति बंधन में आता है। परतंत्रता तो स्वयं आरोपित है अतः उससे मुक्ति सम्भव है। ( 8 ).