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________________ गुलामी चाहे वह 'मन' की हो या ऐन्द्रिक विषयों की तृष्णा जनित है, वह हमारे द्वारा ही ओढ़ी गई है। अतः सम्यक् जीवन-दृष्टि के विकास के साथ मुक्ति के द्वार स्वतः उद्घाटित हो जाते हैं। भारतीय दर्शनों के अनुसार संसार में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो इस स्वयं के द्वारा आरोपित या ओढ़ी गई गुलामी से मुक्त हो सकता है, क्योंकि उसमें आत्म-सजगता, विवेकशीलता और संयमन की शक्ति है, आवश्यकता है उसे अपनी इस स्वतंत्र अस्मिता का या 'पर' निरपेक्ष स्व-स्वरूप का बोध कराने की। हमारी मोह निद्रा या अज्ञानदशा ही हमारे बंधन का हेतु है। हमें किसी दूसरी शक्ति ने बंधन में नहीं बांध रखा है अपितु' हम अपनी भोगासक्ति से स्वयं ही बंध गए हैं, अतः उससे हमें स्वयं ही ऊपर उठना होगा। स्व के द्वारा आरोपित 'कारा' को स्वयं ही तोड़ फेंकना होगा। . किसी विचारक ने ठीक ही कहा है- . स्वयं बंधे हैं स्वयं खुलेंगे, सखे न बीच में बोला इस प्रकार भारतीय जीवन-दृष्टि स्व की स्वतंत्र सत्ता के अस्मिता बोध' या 'स्वरूप बोध' का संदेश देती है। भारतीय जीवन-दृष्टि की यह चर्चा व्यक्ति स्वयं की अपेक्षा से की गई है। बाह्य व्यवहार या सामाजिक जीवन दर्शन की अपेक्षा से उसने हमें तीन सूत्र दिए हैं 1. वैचारिक स्तर पर अनाग्रह 2. व्यवहार के स्तर पर अहिंसा 3. वृत्ति के स्तर पर अनासक्ति आगे हम इनके संदर्भ में विस्तृत चर्चा भी करेंगे, किंतुं इसके पूर्व जैन धर्म के इस सूत्र वाक्य को समझ लेना आवश्यक है, जो जैन धर्म को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि - स्याद्वादो वर्ततेऽस्मिन्, पक्षपातो न विद्यते। नास्त्यन्यं पीडनं किंचित्, जैन धर्मः स उच्यते॥ . अर्थात् जैनधर्म की जीवन-दृष्टि का सार यह है कि व्यक्ति पक्षपात या वैचारिक दुराग्रहों से ऊपर उठकर अनाग्रही (स्याद्वादी) दृष्टि को अपनाए और अपने व्यवहार से किसी को किंचित् भी पीड़ा नहीं दे। अहिंसा अर्थात् जीवन का सम्मान - भारतीय चिंतन में अहिंसा शब्द एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन ग्रंथ (9 )
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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