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________________ दूसरों की लक्ष्मी परस्त्री के समान होती है, दोनों का ही भोग वर्जित है, अतः स्वयं अपने पुरुषार्थ से धन का उपार्जन करके ही उसका भोग करना न्यायसंगत है।112 जैनाचार्यों ने विभिन्न वर्ण के लोगों को किन-किन साधनों से धनार्जन करना चाहिए, इसका भी निर्देश किया है। ब्राह्मणों को मुख (विद्या) से, क्षत्रियों को असि (रक्षण) से, वणिकों से और कर्मशील व्यक्तियों को शिल्पादित-कर्म से धनार्जन करना चाहिए, क्योंकि इन्हीं की साधना में उनकी लक्ष्मी का निवास है।113 यद्यपि यह सही है कि मोक्ष या निर्वाण की उपलब्धि में जो अर्थ और काम बाधक हैं, वे जैनदृष्टि के अनुसार अनाचरणीय एवं हेय हैं, लेकिन जैन-दर्शन यह कभी नहीं कहता कि अर्थ और काम पुरुषार्थ एकान्त रूप से हेय हैं। यदि वे एकांत रूप से हेय होते, तो आदितीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव स्त्रियों की 64 और पुरुषों की 72 कलाओं का विधान कैसे करते? क्योंकि उनमें अधिकांश कलाएं अर्थ और काम-पुरुषार्थ से सम्बंधित हैं।।14 न्यायपूर्वक उपार्जित अर्थ और वैवाहिक मर्यादानुकूल काम का जैन-विचारणा में समुचित स्थान है। जैन विचारकों ने जिसके त्याग पर बल दिया है, वह इन्द्रिय-विषयों का भोग नहीं, भोगों के प्रति आसक्ति, या राग-द्वेष की वृत्ति है। जैन-मान्यता के अनुसार कर्म-विपाक से उपलब्ध भोगों से बचा नहीं जा सकता। इन्द्रियों के सम्मुख उनके विषय उपस्थित होने पर उनके आस्वाद से भी बचना सम्भव नहीं है, जो सम्भव है, वह यह कि उनमें राग-द्वेष की वृत्ति न रखी जाए। इतना ही नहीं, जैनाचार्यों ने जीवन के वासनात्मक एवं सौन्दर्यात्मक-पक्ष को धर्मोन्मुखी बनाने तथा उनके पारस्परिक-विरोध को समाप्त करने का भी प्रयास किया है। उनके अनुसार, मोक्षाभिमुख परस्पर अविरोध में रहे हुए सभी पुरुषार्थ आचरणीय हैं। आचार्य हेमचंद्र कहते हैं कि गृहस्थ-उपासकधर्मपुरुषार्थ, अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ का इस प्रकार आचरण करे कि कोई किसी का बाधक न हो।115 - आचार्य भंद्रबाहु (8वीं शती) ने तो आचार्य हेमचंद्र (11वीं शताब्दी) के पूर्व ही इस बात की उद्घोषणा कर दी थी कि जैन-परम्परा में तो पुरुषार्थ-चतुष्टय * अविरोध-भाव से रहते हैं। आचार्य बड़े ही स्पष्ट एवं मार्मिक-शब्दों में लिखते हैं धर्म, अर्थ और काम को भले ही अन्य कोई विचारक परस्पर विरोधी मानते हों, किंतु जिनवाणी के अनुसार तो वे कुशल अनुष्ठान में अवतरित होने के कारण परस्पर असपत्न (अविरोधी) हैं। अपनी-अपनी भूमिका के योग्य विहित अनुष्ठानरूप धर्म, स्वच्छाशय प्रयुक्त अर्थ और विस्रम्भयुक्त अर्थात् मर्यादानुकूल वैवाकिह-नियंत्रण से स्वीकृत काम, जिनवाणी के अनुसार परस्पर अविरोधी हैं।116 ये पुरुषार्थ परस्पर अविरोधी तभी होते हैं, जब वे (103)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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