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________________ मोक्षाभिमुख होते हैं और जब वे मोक्षाभिमुख होकर परस्पर अविरोध की स्थिति में हों, असपत्न हों, तो वे सम्यक् होते हैं, इसलिए आचरणीय होते हैं, किंतु जब मोक्ष-मार्ग से विमुख होकर पुरुषार्थ-चतुष्टय परस्पर विरोध में होते हैं, तब वे असम्यक् या अनुचित एवं अनाचरणीय होते हैं। बौद्ध-दर्शन में पुरुषार्थचतुष्टय ____ भगवान् बुद्ध यद्यपि निवृत्तिमार्गी श्रमण-परम्परा के अनुगामी हैं, तथापि उनके विचारों में अर्थ एवं काम-पुरुषार्थ के सम्बंध में भी दिशाबोध उपलब्ध है। दीघनिकाय में अर्थ की उपलब्धि के लिए श्रम करते रहने का संदेश उपलब्ध होता है। बुद्ध कहते हैं, आज बहुत सर्दी है, आज बहुत गर्मी है, अब तो संध्या (देर) हो गई, इस प्रकार श्रम से दूर भागता हुआ मनुष्य धनहीन हो जाता है, किंतु जो सर्दी-गर्मी आदि को सहकर कठोर परिश्रम करता है, वह कभी सुख से वंचित नहीं होता। 17 जैसे प्रत्नवान् रहने से मधुमक्खी का छत्ता बढ़ता है, चींटी का वाल्मीक बढ़ता है, वैसे ही प्रयत्नशील मनुष्य का ऐश्वर्य बढ़ता है। 18 इतना ही नहीं, प्राप्त सम्पदा का उपयोग किस प्रकार हो, इस सम्बंध में भी बुद्ध का निर्देश है कि सद्गृहस्थ प्राप्त धन के एक भाग का उपभोग करे, दो . भागों को व्यापार आदि कार्यक्षेत्र में लगाए और चौथे भाग को आपत्तिकाल में काम आने के लिए सुरक्षित रख छोड़े।'' आज का प्रगतिशील अर्थशास्त्री भी आर्थिकप्रगति के लिए इससे अच्छे सूत्र प्रस्तुत नहीं कर सकता। बुद्ध केवल अर्थशास्त्री के रूप में ही नहीं, वरन् एक सामाजिक-अर्थशास्त्री के रूप में हमारे सामने आते हैं। वे इस बारे में भी पूर्ण सतर्क है कि यदि समाज में धन का समुचितं वितरण नहीं होगा, तो अराजकता और असुरक्षा उत्पन्न होगी। वे कहते हैं, निर्धनों को धन नहीं दिए जाने से दरिद्रता बहुत बढ़ गई और दरिद्रता के बहुत बढ़ जाने से चोरी बहुत बढ़ गई।120 चोरी के बहुत बढ़ने का अर्थ धन की असुरक्षा है। इसके पीछे बुद्ध का निर्देश यही है कि समाज में धन का समवितरण होना चाहिए, ताकि समाज का कोई भी वर्ग अभाव से पीड़ित न हो। बुद्ध की दृष्टि में अर्थ को कभी भी धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए, वे धर्मयुक्त व्यवसाय में नियोजित होने का ही निर्देश देते हैं।121 जो जीवन में धन का दान एवं भोग के रूप में समुचित उपयोग नहीं करता, उसका धन निरर्थक है, क्योंकि मरने वाले के पीछे उसका धन आदि नहीं जाता है और न धन से जरामरण से ही छुटकारा मिल सकता है।122 कामपुरुषार्थ के सम्बंध में बुद्ध का दृष्टिकोण मध्यममार्ग का प्रतिपादन करता है। उदान में बुद्ध कहते हैं, ‘ब्रह्मचर्य-जीवन के साथ व्रतों का पालन करना ही सार है, यह एक (104)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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