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________________ जीने के लिए खाना, न कि खाने के लिए जीना। 3. परिग्रह या संचय की एक सीमा निर्धारित करना अर्थात् आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना यद्यपि इन तीनों आचार नियमों के पीछे एक ही जीवन-दृष्टि - रही हुई है और वह है संयमित जीवन शैली का विाकस, जो भारतीय संस्कृति का प्राण यह सत्य है कि जीवन जीने के लिए भोगोपभोग आवश्यक है और भोगोपभोग के लिए संचय आवश्यक है, किंतु भारतीय जीवन दर्शन का कहना है कि यह मर्यादित ही होना चाहिए। असीमित भोगाकांक्षा और संचयवृत्ति हमारे जीवन में तनाव या विक्षोभ उत्पन्न करती है, वैयक्तिक जीवन की समता को और वैश्विक शांति को भंग करती है, अतः इन पर नियंत्रण आवश्यक है और तभी सम्यक् जीवन-दृष्टि का विकास सम्भव होगा। यह ठीक है कि भोग आवश्यक है, किंतु वह त्यागपूर्वक, संयमपूर्वक या मर्यादापूर्वक ही होना चाहिए- इसके लिए ईशावास्योपनिषद् का तेन त्यक्तेन भुंजीथा' का सूत्र वाक्य ही हमारा मार्गदर्शक हो सकता है। दूसरे आज हम भोग के प्राकृतिक साधनों का अमर्यादित दोहन कर जिस उपभोक्तावादी संस्कृति को अपना रहे हैं, इस उपभोक्तावादी जीवन-दष्टि के कारण आज हम आवश्यकता के अनुरूप उत्पादन की बात भूलकर इच्छाओं के उद्वेलन के द्वारा अधिकतम उपभोग के लिए अधिकतम उत्पादन और अधिकतम मौद्रिक लाभ के सिद्धांत पर चल रहे हैं। आज के उत्पादन का सूत्र वाक्य है'अनावश्यक मांगे बढ़ाओं, अपना माल खपाओ और अधिकतम मुनाफा कमाओ।' भारतीय चिंतन कहता है कि हमारी आवश्यकताएं क्या हैं, इसके निर्णायक हम नहीं, प्रकृति या हमारी दैहिक संरचना है। भोग इच्छाओं की पूर्ति के लिए नहीं, अपितु संयमी जीवन की दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए है। आपको जीवन जीने का अधिकार है, किंतु तब तक वह आपके शरीर एवं साधना में सहायक है, आपका जीवन दूसरों के लिए भार रूप नहीं बनाना है। भारतीय जीवन-दृष्टि के अनुसार भोग और त्याग दोनों संयमित जीवन जीने के लिए हैं- अमर्यादित जीवन जीने के लिए नहीं। . साथ ही संचयवृत्ति भी व्यक्ति की आवश्यकता पर आधारित है न कि उसकी असीम तृष्णा पर। भारतीय चिंतन कहता है कि जितनी आवश्यकता है, उतना ही संचय - करो। इस सम्बंध में महाभारत का निम्न श्लोक हमारा मार्गदर्शक है। कहा है__ यावत् भ्रियते जठरं तावत् स्वत्वं देहीनाम् / (15)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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