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________________ अधिको योऽभिमन्यते स्तेन एव सः॥ अर्थात् पेट के लिए जितना आवश्यक है उतने पर ही व्यक्ति का अधिकार है जो इससे अधिक पर अपना अधिकार जमाता है वह सामाजिक दृष्टि से 'चोर' ही है। - भारतीय चिंतन इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर कहता है- जो धन, सम्पत्ति आदि पर पदार्थ हैं, उन पर हमारा कोई स्वामित्व हो ही नहीं सकता। 'पर' को अपना मानना या उस पर मालिकाना हक जताना मिथ्यादृष्टि है। हमें आवश्यकतानुरूप वस्तु के 'उपयोग' का अधिकार तो है, स्वामित्व का अधिकार नहीं है (We have only use right of then, not the ownership) दूसरे यह भी कहा जाता है कि यदि ‘पर-पदार्थों के प्रति आसक्ति या रागभाव नहीं होगा- उदासीनवृत्ति होगी तो फिर जीवन में सक्रियता समाप्त हो जाएगी, व्यक्ति अकर्मण्य बन जाएगा, क्योंकि रागात्मकता या ममत्त्ववृत्ति या स्वामित्व की भावना ही व्यक्ति को सक्रिय बनाती है' इसके उत्तर में भारतीय जीवन-दृष्टि या गीता एक सूत्र देती है कि- कर्तव्यबुद्धि (Sense of duty) से जीओ न कि ममत्त्वबुद्धि (Sense of attachment) से। इस सम्बंध में जैन परम्परा में निम्न दोहा प्रचलित है- जो मानव जीवन-दृष्टि को स्पष्ट कर देता है सम्यक् दृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब परिपाल। , अन्तरसूं न्यारो रहे, ज्यूं धाय खिलावे बाल॥ भारतीय संस्कृति का सार यह है कर्त्तव्यबुद्धि से जीवन जीओ, ममत्त्वबुद्धि से नहीं।' (16)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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