________________ सम्प्रदाय आपस में घृणा के बीज बोता है। यदि हम धर्मों के मूल सारतत्व को देखें तो उनमें कोई बहुत बड़ा अंतर नजर नहीं आता, क्योंकि सभी धर्मों की मूलभूत शिक्षाएं समान ही हैं। न केवल मूलभूत शिक्षाएं ही समान हैं अपितु सभी का व्यावहारिक लक्षण भी समान है। वे मनुष्य को एक ऐसी जीवन शैली प्रदान करते हैं जिसमें व्यक्ति और समाज दोनों ही शांति व सुख का अनुभव कर सकें। किसी कवि ने कहा है - न हिन्दू बुरा है न मुसलमां बुरा है। . . . बुरा वह है जिसका दिल बुरा है। सम्प्रदाय वह रंगीन चश्मा है जो सबको अपने ही रंग में देखना चाहता है और जो भी उसे अपने से भिन्न रंग में दिखाई देता है उसे वह गलत मान लेता है। जबकि धर्म खुली आंखों से उस सारभूत तत्व को देखता है, जो सभी के मूल में समान रूप से समाया हुआ है। इसीलिए धार्मिक होकर तो सम्प्रदाय में हुआ जा सकता है, किंतु सम्प्रदाय में होकर कोई व्यक्ति धर्म में नहीं हो सकता। सम्प्रदाय धर्म साधना की एक विशिष्ट प्रक्रिया को अपनाने वाले लोगों का एक समूह है, किंतु जब यही लोग धर्म के मूल उत्स को छोड़कर मात्र बाह्य क्रियाकाण्डों को ही सब कुछ समझ लेते हैं तो वे धार्मिक न रहकर साम्प्रदायिक बन जाते हैं और यही साम्प्रदायिकता बुरी है। पूर्व में जो यह कहा गया है कि सम्प्रदायों में धर्म नहीं, उसका तात्पर्य यही है कि साम्प्रदायिक आग्रहों के साथ कोई व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। धर्म को यदि हम केंद्र-बिंदु मानें तो सम्प्रदाय व्यक्ति रूपी परिधि-बिंदु को केंद्र से जोड़ने वाली त्रिज्या रेखा के समान है। एक केंद्र-बिंदु से परिधि-बिंदुओं को जोड़ने वाली अनेक रेखाएं खींची जा सकती है। यदि वे सभी रेखाएं परिधि-बिंदु को केंद्र से जोड़ती हैं तब तो वे एक-दूसरे को नहीं काटती अपितु एक-दूसरे से मिलती है किंतु कोई भी रेखा जब केंद्र का परित्याग कर चलती है तो वह दूसरे को काटने लगती है, यही स्थिति सम्प्रदाय की है। सम्प्रदाय जब तक धर्म की ओर उन्मुख है तब तक वे एक-दूसरे के विरोध में खड़े नहीं होते, किंतु जब जब सम्प्रदाय धर्म से विमुख हो जाते हैं तो वे एक दूसरे को काटने लगते हैं। यदि विभिन्न सम्प्रदाय परस्पर सौजन्य एवं सहिष्णुता के साथ जीवित हैं तो वे वस्तुतः धर्म ही हैं, क्योंकि उनके मूल में धार्मिकता का उत्स समाया हुआ है, किंतु जब वे सम्प्रदाय एक-दूसरे के विरोध में खड़े होते हैं तो वे 'सम्प्रदाय' होते हैं, 'धर्म' नहीं, और ऐसे धर्मरहित सम्प्रदाय ही सामाजिक जीवन में असद्भाव और वैमनस्य को जन्म देते हैं। (138)